पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२४४

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शिवसिंहसरो २२५ ८७६. वल्लभ कवि ( : ) दोना—बल्लभ शैली प्रेम की, तिल तिल चंदे सुभाइ। ज्ालजल ते नदि ज) कपल पट जरि जाइ ॥ १ ॥ गाँनसमय मुख नासिकावेसरि डोलत तीय । मानॐ डता इमि कहत, इला चलौ जनि पीय ॥ २ ॥ तम ताजी असवार मन, नयन पिपादे साथ । जोवन चलो सिकार को, विरह या लै हाथ ॥ ३ ॥ तन कंचन को महल है, तामें राजा प्रान । नयन झरोरखा पलक चि, दे सकल जहान ४ ॥ करसर सहित मान दिन , मारत भरे कसीख । पात्र कहूँ नहिं देखियेसालै नख शुरु सीस ॥ ५ ॥ ४७७बकसी कवि जेई वेद प्रभु के बसत उर अंतर हैं तेई वेद विज मुख रसन। बिसेखिये में प्रभु के चंदन कारत लोक लोकपति ऐस ही बड़ाई सतिनीय शावेरेखिये ॥ बकसी कहत इन्हें एकसम माने रहने दूसरों न मानीं गनौ उगन में पेखिये गुत चह तौ परमेपुर को हो । करो प्रगट चाही तो इसैं ब्राह्न को देखिये f १ ॥ माँगहु सँवारे सीस सैदुर उधारे लर मोतिन की बारे झलकत दुति हार की तन जमकसी सारी तामें जगम प्यारी भारी छवि होत उर कंचन के झार की ॥ बालम बिदेस ताके ऐवे को दिवस सुन्यो ठाढ़ीं मग जोए पत छिनक अचार की । वकसी कहत तिया संकल सिंगार किये बाजूबंद बाँधे बाजू पकरे किंवार की ॥ २ ॥ ४७८, ब्रजवासीदास शृंदावनी ( ब्रजविलास ) दोहा-कहौ कहा चाहत फिरत, धाम घेरे माहैिं । १ बेल । २ एक प्रकार का ठोडा । ।