पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२४३

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शिवसिंहसरोज

22 येनियाउ राजा मर्ग त नींद धरधर सोइये । बैताल क१ विक्रग सुनो इतने मेरे न रोइये ॥ ३ ॥ सत्ताइस अरु सात तीनि तेरह तेंतीसा । नौ दस आठ अठारह वीस वावन बत्तीसा ॥ चौदह बैौंसठि चा।रि पाँच पंद्रह पैंतीसा । सोरह छा छपनडु एक ग्यारह इक्कीसा ॥ छानवे कोटि निनानवे घु इक्को दल भू१र । हव बैताल भर्त विक्रम पुनो इतने रच्छा करहैिं तु॥ ४ ॥ पग तुरंग नहिं तुरी लेक केहरि नहिं चीता । सिर विन बेनी गुहै पेट विन पीढि सुनीता ॥ करि नर सों ठयवहार 6ार वह संवें उठावै । चलें हाथ बिन अटपटी चाल ताल वजायें । नहीं जीव नहिं मास तिदि भगति हेतु भंजन कर । बैताल क़है विक्रम सुनो सो गुनी नाम गुन मत्ति धरे ॥ ५॥ ४७४. बैजू का । जन जनकंजा के वनक घे फीके होत धनक न ताके तन संपति ही धारि ले । दसरथ दर्स देख दवें दिगपाल संवै ता सुतव कौन हेत हू विचारि ले ॥ भूषन समाज कहाँ छूयो पर काज । राज सुख को समाज था चित्त स विसारि ले । वच सिय लखन सा कहें पंथ कानन के देवर थकी ही नेक नेवेर उत।रि ले ॥ १ । ॥ ४७५, बजरंग कवि। बारहौ भूषन को सजि के अरु सोरहाँ ऑति सिंगार बनावें । बैठी तिया मनिमंदिर में मुखचंद की. चंदनी को दरसवै । सो बजरंग बिचारि कहै कवि खोजि फिरे उपमा नर्ति पावै । नाइनि ठोदि हहा करती ठकुराइरीि भाल न ईगुर ज़ावे ॥ १ ॥ y १ सीता। २५र ।