पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२३५

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शिवसिंहसरोज

२१६ शिवसिंहसरोज > तुम साँझ ते लाइ रहे जक एक न मानत हैवह सौंद दिवाये । सासु बिसासी के पास रहै नित कोटिन ऑति टरै न टराये ॥ चाल जाछ न काहे अजू बलिहारी में आवै कदाचित आहट पाये। कौन बदी चतुराई तिहारीजो आरीि कहावत हाथ पैराये ।३॥ गगन हमारे बीच एक रूख बैरी को है सोईि दुसराइंत न कोई आसपासई । नौंद जिठानी गई संकठकहानी सुनै आयो हो लाचा न्यौता सिघायो साई ॥ तैयाँ तौ ग्रोसैयाँ जानें कान देस गौने गयो रहत कहाँ थीं औ बसत कौन बाई । दियां जो जरत बिना तेल सो झलमलात भूत औ .. पिस।चन सों अजै. जिय त्रासई ॥ ४ ॥ जुवतीगन में ठटि कूप वे ठाढ़ी जवें नंदलाल मै दीठि . करें । उतसाह सों बोलि उठं सि हाथ सहेली के हाथ साँ हाथ धरे ॥ सब लोगन की तजिलाज़ जहाँ निज नाह तिही दिसि डगरे। भरि के धरि के अपनी गगरी खरी और सखीन को पानी भरे ॥ ५ ॥ सफ़री से कंज़ से कुरंग करसायल से छंघ की-सी फाँ सब कहत सुजान हैं । .नछुघा से नट से तुरंगम से. खंबे से वालक हठीले जैसे ऐसे ठने ठान हैंदेखो टेढ़ी को मानौ नवं नैया और के हैं बान ऐसी अनी पैनी लागे लेत मात्र हैं । ठग बटारे त वारे कवि तुच्छमति इतने ही नैनन के कहे उपमानें हैं 7.६ ॥ इंद्र की बई से मुकुता से नीलमान ऐसे बीजुरीवचा से दमकत देखे नित्त मैं। हीरा गा मानिक सेदाड़िम के दंने ऐसे लाल से विराजत स सोभा छाईवित्त मैं ॥ जीगर्दी से कुंद से बकाइनि के ‘ऐसे देखि के त्रिवेनी तौ पुमिरि.आई हैि तो मैं ।स्या औ सुरंग सेत दसन की छवि एजू बारनकहत कत्रि एक ही वित्त में 1७॥ १ शायद । २.वीरवहूटी।