पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२१६

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शिवसिंहसरोज १९७ सुरझाये सुर नहीं, परपंची के पेंच ॥ ३ ॥ ४२१. बंशरूप कवि का शीवासी सुरतमे में मोहे किन्नरी नरी हैं रोस रस में भरी हैं की करी हैं ककान की । बसरूप चाहें जंग रंग-की उमाहैं नाच उठती । उमहैिं कि गद रुखसाज की ॥ दीनन को छहैं दावादारन कों दाहें उदि सुजल उमहें हैं पन, लोकलाज की । पुन्य अष गईं ये सुदनपरदा हैं वाहैं साहन निवाहैं कासिराज महाराज की ॥ १ ॥ धर्मों का मंत्र सो विलोप करि दीन्हो वान देखत हिरो दिये चेक लख्ो नयो। इट को देखाय हो विलोकि निज डीठ हूं सों में ही वर्षों तानी कैधाँ भ्रम सब को भयो ॥ कवि सरूप स्यामसुन्दर सरूप ऐसो छन में न जान्यो यह कौतुक कहा भयो । जाय सर तीर है अधीर मुसकाश कहो यह अरविंद सौं मलिंद धौं कि गयो ॥ २ ॥ कंचन के पौंग बिछाये सीसमहल में चहल छुपेदी सनी सौरभ रसला मैं । मुझे उनयंवर सकल नरकसिख तक नेक न मानै मन रहत कसाना में । कवि बैंसरूप सजे दीपगन मलां स्वच्छ अधिक उमंग यों आनंग चित्रसाला मैं । महत मसाला हैं विसाला जे दुसाला आला पालसम लागें बाला घिन सीतकाला में ॥ ३ ॥ लहरि लोई में झपत फेरि ऊवत है वार वार चकित निहारि वारपारा मैं । चंचल प्रवल चख ख सो उरत फेरि धीरज धरत विधिगति याँ विचार मैं ॥ कवि सरूप पाय गिरि स अराम नेक रामराम कहि केसपास जाय ठारा में । बूड़त है मेरो मनपावत न थाइ केहूं तेरी मुचि अंगन प्रभा की बारिधारा में ॥ ४ ॥ ४२२. बंशगोपाल कवि खाय के प्रान विदरत छोठ हैं वैटिं सभा में बने अतर्धता। १ दृष्टिबंध का तमाश। ।२ ललनेपन में । ३ मछली ।