पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१९९

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शिवसिंहसरोज

शिवसिंहसरोज़ दोहा लाल को सुनौ, चित दै नारि नवीन नाको आधो बिंदुजुतउत्तर दियो प्रवीन.॥ ४ आई ही यूझन मंत्र तुम्हें निज़ सासन सॉ सिगरी मति देह तब कि तजौं कुलकानि अजाँ न लज लजि है सव हाथ रहै परमारथ स्वारथ चित्त विचारि कहीं पुनि जामें रहै मधु की प्रभुता अरु मेरो पतिव्रत भंग न हई ॥ छ. कमल को वफल ह्यूजीर कलौत'लस हरें ? उच मिलन आति कठिन दमक बहु स्वल्प नीलधर ; सरवर सरवन हंसुमेरु सैलास प्रकासन । निसि-बासर तरुवरहि का कुंदन दृढ़ आसन॥ इमि कहि प्रवीन जल थस अपक अविध भजत तिंय गौरि ढंग कोले खलित उर उलटे सलिल इंदु सौीस इमि उरज ढंग छूटी लटें अलवेली सी चाल भरे मुख पान खरी कदि छीन चोरि नगारा उघारे उरोजन मो तन हरि रही जो प्रवीनी बात निसेफ कहै अति मोहेिं स मोहैिं सो मीति निरंतर कीन लाँईि महानिधि लोगन की हित मेरे सगें क्यों विसएं रसभीनी ३८१. प्रवीन कविराय ।लेयF याहि संसार प्रसार में साखी एक म काम । सारे को साये जन्यो सारी सर्गा विसराम ॥ सारी गृ विसराम राम सपने नईि जान्यो । दया धरम उपकार कवर्सी नहिं उर में आयो । कहि अबीन कघिराय क केदि की समता तिहि । खुतिमॉरग को छोड़ेि रहत अपमारैग मन जिहि ॥ १ १ अकवा।’२ सोने के कतश। ३ महादेव। ४ वेदका मार्ग ।५