पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१९०

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शिवासिंहसरोज- १७१ ३६५. (भदास फधि, अदासजी के शिष्य ( भहमान ) छपे संकर लुफ सनकादि कपिल नारद हनुमाना । किपसेन एलाद बलिsरु भीपम जग जाना ॥ अर्जुन खूब गुंबरीष विभीन सहिमा भारी । अनुरागी नूर सदा ऊधो अधिकारी ॥ भगवन्त भक्ति अवासिष्ट की कीरति कहृत सुजान हैं । हरिप्रसाद रस स्वाद के भ इते परमान हैं t १ ॥ ३६६, नरसी कवि प्रद ध्यान धरि ध्यान धरि नंदनी कुंआर ए जे थाकि आखिर आनंद पाये । ग्रष्ट महा सिद्धि ते द्वारऊ मो रहे देख ना दुकृत ते . बाये। शृंदावन महापुरलिका नि सुनि गोपिका केरंडा बंद आवे । नरसैयाँ ने मने आनंद आति घx पुष्प युक्ताफल लेइ बधावे ॥ १ ॥ ३६७नारायणदास वैष्णव ( छन्दसार पिंगल ) दोहा-श्रीगुरु हरि-दकपल को, घदि मनोज्ञ प्रास । अंदसार यह ग्रंथ सुभ किय नारायनदास ॥ १ ॥ पिंगल बंद अनेक हैं, कहे भुजंग-ईं । तिन ते लिए निफारि में) द्वादस अरु चालीसे ॥ २॥ धीर समीर 'सु वै मुरली तष्ठ औ उचुना छवि सुंग तरंगित । फूलि ‘रहे म कुंजनकुंज करें अलिपुंज एराग सने हित ! शीषभानपता, गेंदनन्दन के गुनगान सुने जित ही तिते । कौन सुने कहीं किदि सर्षों ब्रज की छवि मो मन में ख* नित 1१॥ १ शेष भाग -। २ बचन छंद उनमें से चुनकर कहता हूँ।