पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१८६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शिवसिंहसरोज १६७ ३५३. नवलसिंह (२ ) कायस्थ, फ़्राँसीचाले छ सुभग सिद्धि हुभ दृद्धि सकल संतन मुखकारिनि । दुर्गति दुर्ग दुरंत दुःख दारुन दर दारिनि ॥ सरनागत नैन्य पुन्य कारुन्य बिहारिनि । जगत निरूभित रूप दुष्ट दैत्यन संरिनि ॥ निर्भ में में हर्षित वचन सुरननिर्षि हरिहरते। पुतिविनमय तष विभो जय जय जय गिरिवर सुते ॥ १ ॥ सुखद जु गुरू ल बरन वसत जिहि तनु सुकुमारा । जिहि के दच्छिन बाम भाग विधि प्रस्तारा ॥ उभय मेरु कुच गच- रचना में बोलनि । द्विविध मरकी मकरकादि-रचना सु कपोलर्नि ॥ जिहेि या सदा कल बरन की विमल पताका फरहरहि । । सो सरस्वती विधि-भैयन सम सुखद बात मम डर करहि ॥ २ ॥ ३५४. नंदकिशोर कत्रि। ( रामकृष्णणुणमाल ) पाजो गा दुपटा पट का रेंग रजत कुंकुम के चटकारे ! मल गरे मनि कुंडल भूपन जोति जगे भुज भूपन न्यारे ॥ तीर कमान लिए सरजू नदी तीर खड़े रघुवीर निहारे। नील नए घन से तन के जन के मन के पन के रखवारे ॥ १ ॥ ३५५. नायक कवि सूताई गाँधरे में दृढताई पाहन में नासिका चनानमध्य नौन रही हांट में धर्म रहो पोथिन बड़ाई रहीवृच्छन बँधज पराँतिन में पानी रहो घाट में ॥ यदि कलिकाल ने बिहाल कीन्हो सवें जग १ ग्रहोक । ।