पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१७७

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शिवसिंहसरोज

१५ से शिवसिंहसरोज मूल मुरातिका अनन्दिनी ॥ बंसीवट निकट जहाँ परिरंभन भूमि ताँ सकल घुखद बहै मलयघायु मन्दिनी । जाती ईषदविकास कानन अतिसे मुबास राका निर्षि सरद्द मास बिमल चन्दिनी ॥ नरबाइन प्रड निहारि लोचन भरि घोषनारि नखसिख सौंदर्य कान्त दुखनिकन्दिनी । किसलय भुज मीव मेलि भामिनि मुखसिंधु कैलि नव निकुंज स्या-केलि जगतंवन्दिनी २ ॥ ३२८ नन्दलाल कवि कैसी खुली अलकें पियूपंभरी पल सरस नैन झलकें कर्ज छवि त्ति गे । तेरी देखि बानी सुनि कोकिलां लजानी हैं सुगंध औष पुष्पगंध भौंर भी अति गे॥ हैं तो चली बाहर बिहार संग मोहन के मोहैिं पच्छि पौने पट जोगिन के यूलि गे । सौतिन के यूलें नंदलाल रूप फूटें आलू तोईि देखे धा जैनफूले बन कूलि गे ॥ १ ॥ ३२९ नारयण दास कवि आइडे जू भले आये कत सकुचत हो । पुरत-संग्राम करि सौ । तिन को सुख दीने याही रस भने होय मोको तो रुचत हो ॥ तुम देखें रिस गई उपगी है मीति नई भई सो तो भई आख काहे धो सुचत हो। नारायन मोईि जानो वहै चेरी करि मानो कही जीप एती अभिलाष जू सुचत हो ॥- ॥ ३३०. नीललखी जैतपुर बुंदेल खंडी पद जय जय विसद व्यास की वानी। ग्षेताधार इष्ट रसमय उतकर्ष भक्ति रससानी ॥ लोक वेद भेदन ते न्यारी प्यारी मधुर कहानी।