पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१५७

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शिवसिंहसरोज

A शिवसिंहसराज ऐसो डेरा दीन्हीं देवीदास जयदेव जून को छानी बुने पानी चायु चलनीन को ॥ १ ॥ - २८७. दान कवि नए नए खसन सां खासे खख ने छाष चंदन लिपा जमाय जलत ढ(रती। घोरि बोरि घने घनसारन सर्सी गुलवन उली की चै अतर की पारता ॥ दान कधि छूटत जलजंत तक ताप को न अंत संत सखी सब हारती । मेला के सुनि ली शुभिताये जाकी कोटिन कला के ये के जारि डारती ॥ १ ॥ २८८. दिनेल दये ( नखशिख ) राधे की टोली को बिंदु दिनेस कि विसराम गोबिंद के जी चारु चुपो कनको मनि नील को कैसे जमाघ जम्यो रजनी कैचौं अनंग सिंगार के रंग लख्यो बर वीच वयो कर पी फूले सरोज में भौंरी बसी किर्गी फूल सम में लयो अरसी को ॥ २८६. दयाराम (१) ( अनेकार्थ ) . दोहा-चार बार प्रतिवार री, ग्राषत हैं मो वार । बार बार सुख देत हैं, धरे सीस सिखिवार ॥ १ गोधर गो गो काम के ) विफल होति गो हेरि । गो ते गो स्लम बहत है, गो गो सुनत न फेरि ॥ २ जलज रूप कुएल सत्रन, कपएठ जलज की माल । जलजबदन वाजत जलजजलज लये नंदलाल । ॥ ३ २६०दिलाराम कवि । कंचनसम्पुट गोल उरोज सुधाकर सो मुख जोति लही चुकि लाल बनात महें ज कुंदुभि मैन महीप सही। 'ह-कमान हमें दृग वान गिरें नर चूमि हवास नहीं कन दिये लहरें मुफकता दिलराम सदा-सेत्र पूजि रही ॥

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