पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१५२

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शिवसिंहसरोज

शेखसंहसराज १३३

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बाज वीन न बोलत बात का सिगरे युग घेरत जात हौ ॥ १ ॥ पाँय विहीन के पाँय पलोव्यो अकेले है जांइ घने बन रयों । आरसी अंघ के आगे धयो बहिरे सों मतो करि उत्तर जोयो ॥ ऊसर में बरस्यो बहु बारि पखान के ऊपर पंकज बोयो! दास मुंचा जिन साहेब सूम के सेवन में अपने दिन खोयो ।२ ॥ कैसी कामधेनु कामना की देन ऐन जैसी चिंतामनि चारु चित्त चैन को मुकर । । कैसी चारु चिन्तामनि चैन की सुकर जैसी कामत-साखा कामना की विधि वर है ॥ कैसी कामसारवा का मना की विधि बर जैसी दास मै मद्देस की हमेस दानझर है । कैसी है गहस की हमेस दानझर जैसी वैस वीरधिक्रम नरेस की जर है। ३ ॥ कंज सकोच रहे गड़ेि कीच में मीनन बोरि दियो दहनीरन । दास कहै मुग हू को उदास के बास दियो है अरन्य ऐंभीरन ॥ आपस में उप्र-उपमेय है नैन ये निंदत हें कवि धीरन । खंजन हू को उड़ाय दियो हलु करि दीन्हे अनंग के तरन।।४ (छन्दोoबपिंगल) करि बदन बिमंडित ओज अखंडित पून पण्डित ज्ञानपरं । गिरिनन्दिनिनंदन असुरनिदन गुरउरचंदन कीर्तिकर ॥ भूषन गलछल वीर विचच्छा जनमनरच्छन पासधर । जय जय गननायक खलगनघायक दास सझायक विघनहर ॥ १ । दोहा —सत्रह सौ निन्नानवे, मधुवदि नव इक बिन्दु । दास कियोछन्दोनेस) सुमिरि साँवरो इन्दु ॥ १ । (काव्यनिर्णय ) आज चंद्रभागा बहि चंद्रवदनी के तीर निरत करत आई मरे के परन् को । तब ने कहा धौं कहो बेनी गहि. रही तब वोहू द