पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१४५

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शिवसिंहसरोज

१२६ बिसिहसरान n r

आगे बीच दै के कक्षा दारु गल दिये जात बात्रि वी कहा मीन छीजियतु है । भोग आादि मैं के कहूं वाम सों बिर जोग आादि दें के कई भोग लीजियदु है । ॥ कहै कषि तो मान लू न करें जान्यो या विधि को पान कहीं कैसे कीनि पीठि दे दे पौड़ती हौ पीठि मै है बेनी तेरी बेनी बीच दे पीठि दीजियतु है ॥ ३ ॥ वत मेरे जात का आलि जाो न जात महा भयभी मो पति सओँ कहि तोख कहूँ न ल खो गुमदे पति या प्रवी मेरी देख सक्यो घटती तब तो उनकी बढ़ती हमें दी एक तौ मो ईि की तिय तीसरी तीतरी से उन्हें दूसरी कीनी। सीस धुम्यो निज अंत गुन्यो डु सुयो चालित्रो नंदनंदन के सिख छात्रत जात अटा चहि झाँकि झरोखनि लावत क सैन करे रहिवे की किती कवि तोख चिमैं विथर्फ चित्त ज्ों ज्यों को कम निर% हिरतक होत भट्ट को छको । सुथरी सुसीली सुजसीली ठ रसीली अति लंक लच की मधनुपहलाका सी । कई कवि तख होती सारी के नियारी जब बदरी से बने चन्द की कलाका सी ॥ लोने लोने लोयन पै झमक वारों दतनचमक चारु चंचला चलाका सी । सॉवरे कान्ह तुम से छिपाऊँ कहा सेज पै सोवा आनि सों सलाका सी ॥ ६ ॥ अरुन अनार ऐसे नारंगी लुढार ऐसे उलटे नगार ऐसे के तार से । त्रिपुरारिवार ऐसे चकवा उरार ऐसे श्रीफल ऐसे मारप्रतिहार से ॥ कंज के कुमार हार सरि के करार कवि ) : १ स्त्री ।२ पटका । ३ छः टुकड़े।