पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१३२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
११३
शिवसिंहसरोज

शिwसिंहसरोज ११३ दहत्य प्रेमपंथ ही में आय दुखदुन्द को पटकि जा । कहे जगनन्द काहे होत मतिमंद अघ छाँड़ेि सब फंद ब्रजभूमि को संटकि जां। १ ॥ २३५ जोइली कवि रुचि पाँई झवाँइ दई मिहँदी जिहि को रंग होत मनो नग है । अब ऐसे में स्थाप बुलवं सखी कहि क्यों चल पं भयोमग है । अधराति धरी न सू कलू भनि जोइसी त्तिन को सँग हैं । अब जाएँ तौजात धुपो रेंग है रेंग राखीं तौ जात सचे रंग है ॥ १ ॥ २६जीवन’ कवि (२ ) सटकी सभा की मति लटकी कुल की गति: टूटकी न काहू सच ही की जीह- हटकी । झफी दुसासन सुछ सत्रही कटा सी भई चकी सी है के तिय देखिये सुभट की ॥ तू ही तू ही रट की 8 तू ही जानै घट की पे मटी सी है, के आस चरननतट की । जीवन निपट कीनी पठ की न दीनानाथ पति लान पटैकी तौ तुम्हैं। लाम पट की ॥ १ ॥ २३७जसवंत ( २) कधेि प्राचीन भादौ मास सघन अकास के प्रकासन को घोर्कनिरघोकनि को झंझान झोंक को 1 पुरुष पुरान आनं प्रगयो निदान कान्हू सोखन कलेस तात मातउर सोक को॥ बेदन बंखान्यो जसवंत उर आम्यो जग दुखन घटान्यो नरदेवन के थो को जनसुख दार्थक भो भूतल को नायक भो पर्यक्र भो कंप्स को सहायक त्रिलोक को ॥ १ ॥ ३३८ जग जीवन कवि बी हुती सचिलास विलास में हास ही सो द्रावत जी को । ईस के सीस में डीठ परी ठ सखी है डरी मनो देखत पी को॥ १ जलाकर।२ चइला। ३. स्यागी । डे घोष () में निर्धा यानी शब्द।५ समूह ।६ मारनेवाला ७ बहलाती ।