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शिवसिंहसरोज
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कविताई अति चाह करत रहंत गढ़ नगर में ॥ १ ॥ देस मालवा माहिं कुंडलिया करि संतसई । हरिगुन अधिक सराहि चंद कवीसुरतेहि सभा ॥ २ ॥
उनींदी आँच रंगभरी दुरत नहीं पट अोट । मीन ग्वजन संगहीन भये हैं और कमलदल वारि डारौं लख कोट ।। दुरत मुरत झपकत अनियारी चंचल करति हैं चोट । चतुरविहारी प्यारी की छवि निरखत वाँधत सुख की पोट ॥१॥ १ न मिली, पक्षांतर में इसी नामका वृक्ष । २ वर्ग और वर।