निराकार द्रष्टा की भाँति अतृप्त लोचन से नाटक के पटाक्षेपों को देखना उनका स्वभाव बन गया है। "अथक ऐसे हैं कि कितने ही तमाशे देख गए, पर दृष्टि नहीं हटाते। इन्होंने पृथ्वीराज, जयचंद की तबाही देखी, मुसलमानों की बादशाही देखी। अकबर, बीरबल, खानखाना और तानसेन देखे। शाहजहानी तख्तेताऊस और शाही जलूस देखे। फिर वही तख्त नादिरशाह को उठाकर ले जाते देखा। शिवाजी और औरंगजेब देखे, क्लाइव और हेस्टिंग्स-से वीर बहादुर अंग्रेज देखे। देखते-देखते बड़े शौक से लार्ड कर्जन का हाथियों का जलूस और दिल्ली दरबार देखा। कोई दिखाने वाला चाहिए, भारतवासी देखने को सदा प्रस्तुत हैं। इस गुण में वे मोंछ मरोड़कर कह सकते हैं कि संसार में कोई उनका सानी नहीं।" भारतीयों की यह तमाशाई तबीयत आज भी ज्यों की त्यों है। दिल्ली में रोज जलसे-जलूस रहते हैं और राजधानी की जनता उनमें दर्शकों का फर्ज पूरी तरह अदा करती है। लगता है कि इस मुल्क के बाशिंदों के पास कोई मुस्तकिल काम नहीं है। भीड़-भाड़, जलसे-जलूस, खेल-तमाशे, नाच-गाने, भाषण-नाटक—यही सब होता रहता है और तमाशबीन जनता कामकाज से मुक्त हो इनमें डूबी रहती है। शिवशम्भु इस प्रवृत्ति को ताड़ गए थे और इस पर चोट करना न भूले थे।
दूसरी बार वाइसराय होकर आने पर बम्बई में लार्ड कर्ज़न का राजा महाराजाओं ने बड़ी धूमधाम से स्वागत किया। बम्बई की म्युनिस्पैलिटी की ओर से आपके अभिनंदन का विशाल पैमाने पर आयोजन किया गया। इस आयोजन में लार्ड कर्ज़न ने भारतीय जनता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना तो दूर उसकी कटु शब्दों में आलोचना कर डाली। शिवशम्भु को यह सह्य न हुआ। उन्होंने अपने चिट्ठे में बड़ी स्पष्ट भाषा में बिना किसी लाग-लपेट के लार्ड कर्ज़न को सम्बोधित करते हुए लिखा—"सच मानिए कि आपने इस देश को कुछ नहीं समझा, खाली समझने की शेखी में रहे और आशा नहीं कि इन अगले कई महीनों में भी कुछ समझें। किन्तु इस देश ने आपको खूब समझ लिया और अधिक समझने की जरूरत नहीं रही।
XXX आपने गरीब प्रजा की ओर तक भी दृष्टि डालकर नहीं देखा, न गरीबों ने आपको जाना। जब आप अपना पद त्यागकर स्वदेश वापस