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शिवशम्भु के चिट्ठे


देशमें पड़े रहकर भी श्रीमान्का प्रिन्स आफ वेल्सके स्वागत तक ठहरना एक खयाल-मात्र है।

कितने ही खयाली इस देशमें अपना खयाल पूरा करके चले गये। दो सवा-दो सौ साल पहले एक शासकने इस बंगदेशमें एक रुपयेके आठ मन धान बिकवाकर कहा था कि जो इससे सस्ता धान इस देशमें बिकवाकर इस देशके धनधान्यपूर्ण होनेका परिचय देगा, उसको मैं अपने से अच्छा शासक समझूंगा। यह शासक भी नहीं है, उसका समय भी नहीं है। कईएक शताब्दियोंके भीतर इस भूमिने कितने ही रंग पलटे हैं, कितनी ही इसकी सीमाएं हो चुकी हैं। कितने ही नगर इसकी राजधानी बनकर उजड़ गये। गौड़ के जिन खण्डहरोंमें अब उल्लू बोलते और गीदड़ चिल्लाते हैं, वहां कभी बांके महल खड़े थे और वहीं बंगदेशका शासक रहता था। मुर्शिदाबाद, जो आज एक लुटा हुआ-सा शहर दिखाई देता है, कुछ दिन पहले इसी बंगदेशकी राजधानी था और उसकी चहल-पहलका कुछ ठिकाना न था। जहां घसियारे घास खोदा करते थे, वहां आज कलकत्ता-जैसा महानगर बसा हुआ है, जिसके जोड़का एशियामें एक-आध नगर ही निकल सकता है। अब माइ लार्डके बंग-विच्छेदसे ढाका, शिलांग और चटगांवमें से हरेक राजधानीका सेहरा बंधवाने के लिये सिर आगे बढ़ाता है। कौन जाने इनमें से किसके नसीबमें क्या लिखा है और भविष्य क्या-क्या दिखलायेगा!

दो हजार वर्ष नहीं हुए, इस देशका एक शासक कह गया है— "सैकड़ों राजा जिसे अपनी-अपनी समझकर चले गये, परन्तु वह किसीके भी साथ नहीं गई, ऐसी पृथिवीके पानेसे क्या राजाओं को अभिमान करना चाहिये? अब तो लोग इसके अंशके अंशको पाकर भी अपने को भूपति मानते हैं। ओहो! जिसपर पश्चाताप करना चाहिये, उसके लिये मूर्ख उल्टा आनन्द करते हैं।" वही राजा और कहता है—-"यह पृथिवी मट्ठीका एक छोटा-सा ढेला है, जो चारों तरफसे समुद्ररूपी पानीकी रेखासे घिरा हुआ है। राजा लोग आपसमें लड़-भिड़कर इस छोटे-से ढेलेके छोटे-छोटे अंशोंपर अपना अधिकार जमाकर राज्य करते हैं। ऐसे क्षुद्र और दरिद्री राजाओंको लोग दानी कहकर जाँचने जाते हैं। ऐसे नीचोंसे धनकी आशा करनेवाले अधम पुरुषोंको धिक्कार है।" यह वह शासक था कि इस देशका चक्रवर्ती अधीश्वर होनेपर भी एक दिन राज-पाटको लात मारकर जंगलों और वनों में चला