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शिवशम्भु के चिट्ठे


इतनी जल्दी वह समय पूरा हो जायगा, ऐसा विचार न आप ही का था, न इस देशके निवासियोंका। इससे जान पड़ता है कि आपके और यहाँके निवासियोंके बीचमें कोई तीसरी शक्ति और भी है, जिसपर यहांवालोंका तो क्या, आपका भी काबू नहीं है।

बिछड़न-समय बड़ा करुणोत्पादक होता है। आपको बिछड़ते देखकर आज हृदय में बड़ा दुःख है। माइ लार्ड! आपके दूसरी बार इस देश में आने से भारतवासी किसी प्रकार प्रसन्न न थे। वह यही चाहते थे कि आप फिर न आवें। पर आप आये और उससे यहांके लोग बहुत ही दुःखित हुए। वह दिन-रात यही मानते थे कि जल्द श्रीमान् यहां से पधारें। पर अहो! आज आपके जानेपर हर्षकी जगह विषाद होता है। इसीसे जाना कि बिछड़न-समय बड़ा करुणोत्पादक होता है; बड़ा पवित्र, बड़ा निर्म्मल और बड़ा कोमल होता है। वैर-भाव छूटकर शान्त रसका आविर्भाव उस समय होता है।

माइ लार्डका देश देखनेका इस दीन भंगड़ ब्राह्मणको कभी इस जन्ममें सौभाग्य नहीं हुआ। इससे नहीं जानता कि वहां बिछड़नेके समय लोगोंका क्या भाव होता है। पर इस देशके पशु-पक्षियोंको भी बिछड़नेके समय उदास देखा है। एक बार शिवशम्भुके दो गायें थीं। उनमें एक अधिक बलवाली थी। वह कभी-कभी अपने सींगोंकी टक्करसे दूसरी कमजोर गायको गिरा देती थी। एक दिन वह टक्कर मारनेवाली गाय पुरोहितको दे दी गई। देखा कि दुर्बल गाय उसके चले जानेसे प्रसन्न नहीं हुई, वरञ्च उस दिन वह भूखी खड़ी रही, चारा छुआ तक नहीं। माइ लार्ड! जिस देशके पशुओंकी बिछड़ते समय यह दशा होती है, वहां मनुष्योंकी कैसी दशा हो सकती है, इसका अन्दाजा लगाना कठिन नहीं है।

आगे भी इस देशमें जो प्रधान शासक आये, अन्तको उनको जाना पड़ा। इससे आपका जाना भी परम्पराकी चालसे कुछ अलग नहीं है, तथापि आपके शासन-कालका नाटक घोर दुःखान्त है, और अधिक आश्चर्यकी बात यह है कि दर्शक तो क्या, स्वयं सूत्राधार भी नहीं जानता था कि उसने जो खेल सुखान्त समझकर खेलना आरम्भ किया था, वह दुःखान्त हो जावेगा। जिसके आदिमें सुख था, मध्यमें सीमासे बाहर सुख था, उसका अन्त ऐसे