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शिवशम्भु के चिट्ठे


सुनाना पड़ा। कारण यह है कि करनेसे अधिक कहनेका आपका स्वभाव है। इससे आपका करना भी कहे बिना प्रकाशित नहीं होता। यहांकी अधिक प्रजा ऐसी है, जो अब तक भी नहीं जानती कि आप यहांके वैसराय और राजप्रतिनिधि हैं और एक बार विलायत जाकर फिरसे भारतमें आये हैं। आपने गरीब प्रजा की ओर न कभी दृष्टि खोलकर देखा, न गरीबोंने आपको जाना। अब भी आपकी बातोंसे आपकी वह चेष्टा नहीं पाई जाती। इससे स्मरण रहे कि जब अपने पदको त्यागकर आप फिर स्वदेशमें जावेंगे, तो चाहे आपको अपने कितने ही गुण-कीर्तन करनेका अवसर मिले, यह तो भी न कह सकेंगे कि कभी भारतकी प्रजाका मन भी अपने हाथमें किया था!

यह वह देश है, जहांकी प्रजा एक दिन पहले रामचन्द्रके राजतिलक पानेके आनन्दमें मस्त थी और अगले दिन अचानक रामचन्द्र बनको चले, तो रोती-रोती उनके पीछे जाती थी। भरतको उस प्रजाका मन प्रसन्न करनेके लिये कोई भारी दरबार नहीं करना पड़ा, हाथियोंका जुलूस नहीं निकालना पड़ा, वरञ्च दौड़कर वनमें जाना पड़ा और रामचन्द्रको फिर अयोध्यामें लानेका यत्न करना पड़ा। जब वह न आये, तो उनकी खड़ाऊं को सिरपर धरकर अयोध्या तक आये और खड़ाऊंओंको राजसिंहासनपर रखकर स्वयं चौदह साल तक बल्कल धारण करके उनकी सेवा करते रहे। तब प्रजाने समझा कि भरत अयोध्याका शासन करने योग्य हैं।

माइ लार्ड! आप वक्तृता देने में बड़े दक्ष हैं। पर यहां वक्तृताका कुछ और ही वजन है। सत्यवादी युधिष्ठिर के मुखसे जो निकल जाता,वही होता था। आयुभरमें उसने एक बार बहुत भारी पोलिटिकल जरूरत पड़नेसे कुछ सहज-सा झूठ बोलनेकी चेष्टा की थी। वही बात महाभारतमें लिखी हुई है। जब तक महाभारत है, वह बात भी रहेगी। एक बार अपनी वक्त्तृताओं से इस विषयको मिलाइये और फिर विचारिये कि इस देशकी प्रजाके साथ आप किस प्रकार अपना कर्त्तव्य पालन करेंगे। साथ ही इस समय इस अधेड़ भंगड़ ब्राह्मणको अपनी भाँग-बूटीकी फिकर करनेकी आज्ञा दीजिये।

('भारतमित्र', १७ दिसम्बर सन् १९०४)