रायबहादुरों पर किया गया है जो चापलूसी द्वारा सरकार में प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। "जिनके बाप-दादा भेड़ की आवाज सुनकर डर जाते थे, जिनको स्वयं चाकू से कलम का डंक काटते भय लगता है उन्हें सरकार ने रायबहादुर बनाया है।"
"जो लिखते अरिहीन पै सदासेल के अंक।
झपत नैन तिन सुतन के कटत कलम को डंक।"
गुप्तजी के पैने व्यंग्य के लिए उनके 'ककराष्टक' और 'होली है' शीर्षक निबंध पठनीय हैं।
बाबू बालमुकुंद गुप्त की शैली ने हिंदी में गद्य के धरातल पर व्यंग्य को प्रतिष्ठित किया। इसके पहले कविता में तो व्यंग्य आ गया था किंतु गद्य के द्वारा गुप्तजी ने उसे व्यावहारिक एवं संप्रेषणीय बनाया। गुप्तजी के चिट्ठों के पाठक अपने समय में सबसे अधिक थे। अंग्रेजी में भी इनका अनुवाद श्री ज्योत्स्येंद्रनाथ बनर्जी ने किया था जो अंग्रेजों में भी चर्चा का विषय बना। हिंदी के कई लेखकों ने इनके अगुकरण का भी प्रयास किया। व्यंग्य-विनोद के माध्यम से राजनीति, समाज, शिक्षा, सुधार और प्रचार के क्षेत्र में जितना काम गुप्तजी ने किया उतना न तो उनसे पहले कोई लेखक कर सका था और न उनके बाद किसी ने इस क्षेत्र में ख्याति अर्जित की। गुप्तजी ने पद्य में भी अनेक रचनाएं कीं किंतु उनकी मौलिक प्रतिभा के दर्शन हमें गद्य में ही होते हैं इसलिए इस लघु लेख में हमने उनकी चुटीली और मार्मिक कविताओं को उदाहरण के रूप में नहीं लिया है। गुप्तजी के पचास से अधिक लेख हैं जो व्यंग्य की दृष्टि से श्लाघ्य होने के साथ तत्कालीन राजनीति, समाज, शिक्षा तथा भारतीय स्थितियों का सजीव चित्र पाठक के सम्मुख उपस्थित करने में समर्थ हैं। भारतेंदु युग के सच्चे वारिस और द्विवेदी युग के उन्नायक के रूप में बाबू बालमुकुंद गुप्त का नाम हिंदी साहित्य के इतिहास में अमिट बना रहेगा।
राणा प्रताप बाग | विजयेन्द्र स्नातक |
दिल्ली |