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जब तक आपके हाथ में शक्ति रही, आपने भारत की भलाई के लिए कुछ नहीं किया। भारत के बिगाड़ने के लिए आपने क्या-क्या नहीं किया किंतु क्या किसी एक मनुष्य के किए किसी विशाल देश का कुछ बिगड़ सकता है। आपने वंगविच्छेद का बीज बोकर इस देश की जनता को जो पीड़ा पहुंचाई है वह क्या कभी भूली जा सकेगी। तुगलक भी आपके ही स्वभाव का एक शासक पांच सौ वर्ष पहले इस देश में हुआ था। लेकिन इसके बाद दौलताबाद बसाने से दिल्ली उजड़ नहीं गई थी और आपके भी वंग-विच्छेद से बंगाल विनष्ट नहीं होगा। "सब ज्यों का त्यों है। बंग देश की भूमि जहां थी वहीं है और उसका हर एक नगर और गांव जहां था वहीं है। कलकत्ता उठाकर चेरापूंजी के पहाड़ पर नहीं रख दिया गया और शिलांग उड़कर हुगली के पुल पर नहीं आ बैठा। बंगविच्छेद करके माइलार्ड ने अपना एक खयाल पूरा किया है। कितने ही खयाली इस देश में अपना खयाल पूरा करके चले गये XXX आपके इस प्रकार के कारनामों से भारतवासियों के मन में यह बात जम गई है कि अंग्रेजों से भक्तिभाव करना वृथा है, प्रार्थना करना वृथा है और उनके आगे रोना-गाना वृथा है। दुर्बल की वह नहीं सुनते।"

शिवशम्मु के आठ चिट्ठों के अतिरिक्त बाबू बालमुकुंद गुप्त ने 'कर्जन-शाही' शीर्षक से भी बड़े व्यंग्य भरे लेख लिखे थे। उन लेखों में कर्जन के कठोर स्वभाव का वर्णन करते हुए उनकी क्रूरताओं को आलंकारिक शैली में व्यक्त किया गया है। कर्जन के विषय में उन्होंने लिखा है—"अहंकार, आत्मश्लाघा, जिद और गालबजाई में लार्ड कर्जन अपने सानी आप निकले। जब से अंग्रेजी राज्य आरंभ हुआ है तब से इन गुणों में आपकी बराबरी करने वाला एक भी बड़ा लाट इस देश में नहीं आया। भारतवर्ष की बहुत-सी प्रजा के मन में धारणा है कि जिस देश में जल न बरसता हो, लार्ड कर्जन पदार्पण करें तो वर्षा होने लगती है, और जहां के लोग अतिवर्षा और तूफान से तंग हों वहां कर्जन के जाने से स्वच्छ सूर्य निकल आता है।" इस प्रकार की अनेक व्यंग्योक्तियां गुप्तजी के लेखों में छिटकी पड़ी हैं। 'मेले का ऊंट' शीर्षक चिट्ठे में मारवाड़ी समाज की कुरीतियों को 'मारवाड़ी ऐसोसियेशन' द्वारा व्यक्त किया गया है। इनमें से एक व्यंग्य उन सेठ-साहूकारों,