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( ७८ ) "तुम भीरु हो, तुम कायर हो, तुम पुरुष नहीं हो । तुम बालक का मनोहर मुखड़ा देखकर मोहित हो गए । मार* की आसुरी माया ने तुम्हें घेर लियाः इसीसे तुम उस बालक की हत्या न कर सके। वज्रा- चार्य ! तुम मागध संघ के मुखिया हो। उत्तरापथ का आर्यसंघ भी तुम जिधर उँगली उठाओ उधर चल सकता है। वज्राचार्य तुम भी भाग्यचक्र की ओट लेकर बैठ रहना चाहते हो ? शक्रसेन ! भोले भाले बच्चों और बूढ़ी स्त्रियों को छोड़ इस युग में भाग्यचक्र को और मानता कौन है ? छि ! छि ! तुमसे एक सड़ा सा काम न हो सका ! आर्यसंघ को उन्नति के लिए तुम एक सामान्य बालक की हत्या तक न कर सके ! वज्राचार्य ! तुम्हें अपना कलंकी मुँह छिपाने के लिए कहीं स्थान न मिलेगा। युग युगांतर तक, जब तक बौद्ध धर्म इस संसार में रहेगा, तुम्हारी अपकीर्चि बनी रहेगी। वृद्ध ! तुम वहीं समा क्यों न गए ! कौन सा मुँह लेकर लौट आए।" "स्थविर ! तुम भी वृद्ध हुए, बालक नहीं हो । संघ की सेवा करते तुम्हारे बाल पक गए। तुम्हें मैं अधिक क्या समझाऊँ ? थोड़ा आँख खोलकर देखो, जीव मात्र भाग्यचक्र में बंधे हैं । यदि भोलेभाले बच्चों को छोड़ और कोई भाग्यचक्र नहीं मानता, तो तुम इतनी देर तक गणमा करके क्यों मरते रहे ? अब तक तुम शशांक की जन्मपत्री फैलाए क्या बैठे हो ? बंधुगुप्त ! हम दोनों ने एक ही दिन प्रव्रज्या ग्रहण की, साथ रहकर आजन्म संघ का सेवा की, सुख दुःख, संपद विपद में बराबर एक दूसरे के पास रहे, तुम क्या मेरा स्वभाव तक भूल गए !

  • मार=संसार को मोह में फँसानेवाला, जिसने बुद्ध भगवान् को सुखभोग के

अनेक प्रकार के प्रलोभन दिखाए थे। + बौद्ध भिक्खुओं की दीक्षा, संन्यास ।