(७०) पहला मिक्खु-आचार्य ! बात तो इसने बड़ी बुरी कही । पर उस दिन संघस्थविर भी मुझसे कहते थे कि आचार्य देशानंद अब वृद्ध हुए, वे तरुण भिक्खुओं को शिक्षा देने के योग्य हैं । स्थविर- वृद्ध भिक्षु-स्थविर तेरा बाप, तेरा दादा। तुम सबने क्या मुझे पागल समझ रखा है ? अभी मैं उठकर बताता हूँ। वृद्ध दोनों भिक्खुओं की ओर झपटा । सब के सब उसे पकड़कर बिठाने लगे, पर वह किसी की नहीं सुनता था । अंत में बड़ी बड़ी मुश्किलों से वह शांत हुआ। युवक भिक्खुओं ने यह बात मान ली कि उन्हीं का वयस् अधिक है आचार्य देशानंद तरुण हैं । उनके बाल जो थोड़े बहुत पके हैं वह अधिक अध्ययन से । जिस स्त्री को देखकर भिक्खु मंडली के बीच यह सब झगड़ा खड़ा हुआ था कपड़े लत्चे से वह अच्छी जाति की और किसी धनाढ्य नागरिक की परिचारिका जान पड़ती थी । गड़बड़ देखकर अब तक वह दूर खड़ी थी। भिक्खुओं को शांत देख वह आगे बढ़कर कुछ पूछा ही चाहती थी कि आचार्य सामने आकर बोले "तुम क्या मुझे ढूँढ़ने आई हो ?' रमणी ने कहा "नहीं, यहाँ कहीं जिनानंद भिक्खु रहते हैं ?" उसकी बात सुनकर वृद्ध हताश होकर बैठ गया। रमणी फिर पूछने लगी “यहाँ जिनानंद भिक्खु रहते हैं ?" आचार्य को निरुत्तर देख एक भिक्खु ने उत्तर दिया 'हाँ, रहते हैं। रमणी-महाराज ! थोड़ा उन्हें मेरे पास भेज देंगे । भिक्खु-क्यों ? रमणी -काम है। भिक्खु-क्या काम है, बताओ। रमणी-बताने की आज्ञा मुझे नहीं है ।
पृष्ठ:शशांक.djvu/९०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।