( ५६ ) गला भर आया और वे थोड़ी देर चुप रह कर फिर विधुसेन से बोले "विधुसेन ! इन आए हुए लोगों के खाने-पीने का क्या उपाय होगा ? इस जंगल में तो पैसा देने पर भी कुछ नहीं मिल सकता ।" धनसुख-प्रभो! अक्षपटलिक और वीरेंद्र सिंह ने पहले ही सब प्रबंध कर रखा है। सब लोग भोजन आदि करके निश्चित हुए । यशोधवलदेव ने विधु- सेन, सिंहदत्त, हरिदत्त, वीरेंद्रसिह और धनसुख को अपने शयनागार में बुलाया । सबके बैठ जाने पर दुर्गस्वामी ने कहा "जिस दिन मुझे कीर्तिधवल के स्वर्गवास का संवाद मिला उस दिन से कल तक पागल की सी दशा में मेरे दिन बीते। कल मेरी आँखें खुली; गढ़ के चारों ओर जो मेरी भूसंपत्ति है उसका लोभ ऐसा नहीं हो सकता कि कोई ऊँचे घराने का युवक मेरी पुत्री के साथ विवाह करके इस जंगली और पहाड़ी देश में आकर रहे । जिस प्रकार से हो वंग देश की संपत्ति का उद्धार किए बिना न बनेगा। मैंने विचारा है कि मैं पाटलिपुत्र जाकर सम्राट मे मिलूँ । तुम सब लोग मिल कर इसका प्रबंध कर दो।" अंत में यह बात ठहरी कि विधुसेन तो रह कर दुर्ग की रक्षा करें, धनसुख धन संपति सँभालें और वीरेंद्र सिंह गढ़पति के साथ पाटलिपुत्र जायें । संध्या होते-होते जब अस्ताचलगामी सूर्य की सुनहरी किरने गढ़ के मुँडेरों और कलशों पर रक्त आभा डाल रही थीं, ग्रामवासी एक-एक करके दुर्गस्वामी से बिदा होकर अपने-अपने घर लौट रहे थे। रग्घू नन्नी से कहने लगा "न जाने कहाँ से यह राक्षसों का जमावड़ा आकर इतना सब अन्न चट कर गया। अरे, इतनी जिंस भेजी थी तो फिर आप आ-आ कर क्या डटे ? अपने घर जाकर खाते-पीते ।"
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