( ५४ ) हुई बालिका लतिका कोठरी में बिजली की तरह आ पहुँची और कहने लगी "बाबा! उठते नहीं, देखो तुम्हारे आसरे कितने लोग बाहर बैठे हैं !" वृद्ध ने हँस कर कहा “जाता हूँ, बेटी ।" रग्घू स्वामी के हाथ में कपड़े देकर बाहर चला गया । आकर दुर्ग के प्रांगण के एक किनारे मत्स्यदेश के श्वेतमर्मर की एक बारह- दरी थी, जो बहुत पुरानी हो जाने के कारण और बहुत दिनों से मरम्मत न होने से जर्जर हो रही थी। उसकी छत एक कोने पर गिर गई थी और वहाँ एक पीपल का पेड़ निकलकर अपने पञ्चे हिला रहा था । बारहदरी के नीचे शालग्रामी पत्थर की एक बारहकोनी चौकी बनी थी जो कदाचित् तब की होगी जब रोहिताश्वगढ़ बना था । गढ़पति इसी अलिंद में इसी चौकी पर बैठकर प्रजा के आवेदन सुनते और विचार किया करते थे। धवलवंशीय महानायकों ने सुंदर बेलबूटों के रंगीन पत्थरों से बारहदरी के खंभे सजाए थे । दुर्गस्वामी जिस समय विचार करने बैठते थे गढ़ की सेना चारों ओर श्रेणीबद्ध होकर खड़ी होती थी। अधीन सेनानायक और छोटे भूस्वामी महानायक के सामने बैटते थे, और लोग नंगे पैर खड़े रहते थे। काली चौकी पर सोने का सिंहासन रखा जाता था और उस पर वाराणसी का बना हुआ सुनहरे काम का मणिमुक्ताखचित झूल डाला जाता था। रोहिताश्व के महा- नायक उसी पर बैठा करते थे। गढ़पतियों की भाग्यलक्ष्मी के साथ साथ समृद्धि के सब चिह्न भी लुप्त हो गए थे, केवल एक यही सिंहासन बच रहा था । अन्नकष्ट होने पर भी महानायक लोकलज्जा और वंशगौरव के अभिमान से इस बहुमूल्य स्वर्ण सिंहासन को न बेच सके थे। वह बड़े यत्न से अब तक रखा हुआ था । पुत्र की मृत्यु के पहले यशोधवल समय समय पर प्रजा को दर्शन देते थे और कीचिंधवल नित्य आवश्यक कार्यों के निर्वाह के लिये बारहदरी में बैठते थे। उनके मरे पीछे फिर
पृष्ठ:शशांक.djvu/७४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।