रग्धू जब सब चट कर चुका तब नन्नी से कहने लगा "ऊपर जो हाड़ियाँ रखी हैं देख तो उनमें क्या-क्या है ?” बुढ़िया ने हँस कर कहा अब उधर डीठ मत लगा, वह सब प्रभु के लिये आया है, अब तू और खायगा तो तेरा पेट फट जायगा, चल उठ।" धनसुख ने किसी प्रकार अपनी हँसी रोक कर कहा "रग्घू ! गढ़ के आँगन में बहुत से लोग गढ़पति से मिलने के लिये बैठे हैं, जाकर उन्हें संवाद दे आओ।" बुड्ढा धीरे-धीरे उठा और अपना शरीर धो-पोंछ कर एक बहुत पुरानी पगड़ी सिर पर बाँध दुर्ग स्वामी के भवन की ओर चला उसके चले जाने पर बुढ़िया धनसुख से पूछने लगी "धनसुख ! यह इतना सामान और मिठाई कहाँ से आई है ?” धनसुख ने कहा "रोहिताश्व गढ़ की प्रजा यह सब पहुँचा गई है, अभी बहुत सा सामना बाहर पड़ा है। मुझे भंडार का घर न मिला इससे कुछ वस्तुएँ तुम्हारी कोठरी में रख गया, और सब अभी बाहर हैं।" नन्नी-थोड़ा ठहरो, मैं इस कोठरी को साफ कर दूं। बुढ़िया झाडू लेकर हाड़ियों के चूर बटोर-बटोर कर फेंकने लगी। धनसुख कोठरी के बाहर गया। बुढ़िया ने कोठरी के बाहर निकल कर देखा कि दुर्ग का लंबा-चौड़ा प्रांगण लोगों से खचाखच भरा है, सहस्र से अधिक मनुष्य बैठे हैं। उनके सामने अन्न और खाने-पीने की सामग्री का अटाला लगा हुआ है। आटे, घी, तेल, चावल, चीनी आदि से भर सैकड़ों बोरे और बरतन यहाँ से वहाँ तक रखे हुए हैं । बुढ़िया को जो पहचानते नहीं थे वे उसे दुर्ग स्वामिनी समझ प्रणाम करने के लिए बढ़ने लगे, पर जो जानते थे उन्होंने उन्हें रोक लिया । नन्नी ने देखा कि इतनी सामग्री ले जाकर भंडार घर में रखना उसकी शक्ति के बाहर है । वह.चुपचाप घर में लौट गई। दुर्ग स्वामी उठ कर पलंग पर बैठे हैं, रग्घू उनके सब वस्त्र परिधान लिए सामने खड़ा है। इसी बीच अपने बिखरे हुए केशों को लहराती
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