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५११ ई० में अरिकिण ( एरन ) के गोपराज को हम गुप्तसम्राट की ओर से युद्ध में प्रवृत्त पाते हैं। इसी प्रकार दभाला के राजा संक्षोभ को भी हम सन् ५१८ और ५२८ ई० में गुप्तसम्राट के सामंत के रूप में पाते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि त्रिपुरविषय वा मध्यप्रदेश पर उस समय हूणराज का अधिकार नहीं था । वह प्रदेश गुप्तों की ही अधीनता में था । इन प्रमाणों से सिद्ध है कि वालादित्य ने तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल को अच्छी तरह ध्वस्त किया। पीछे मंदसोर के जनेंद्र यशोधर्मन् ने सन् ५३३ ई० के पहले ही उसे उत्तर की ओर ( काश्मीर में ) भगा दिया । इस प्रकार हूणों का उपद्रव सब दिन के लिये शांत हुआ । संक्षोभ के दोनों लेखों से हम मध्यप्रदेश में सन् ५२८ ई० तक गुप्तों का आधिपत्य पाते हैं। इसके उपरांत जान पड़ता है कि यशोधर्मन् प्रबल हुए और उन्होंने बालादित्य के पुत्र वज्र को अधिकारच्युत किया। हुएन्सांग ने भी लिखा है कि मगध और पुड्रवर्द्धन में वज्र के पीछे मध्यप्रदेश के एक राजा का अधिकार हुआ । गुप्तों के सामंत दत्तवंश वालों का अधिकार उस समय हम पुड्रवर्द्धन में नहीं पाते हैं। पर यह स्पष्ट है कि यशोधर्मन् का अधिकार बहुत थोड़े दिनों तक रहा क्यों कि सन् ५३३-३४ ई० ( गुप्त संवत् २१४ ) में हम फिर पुंड्रवर्द्धन ( उत्तरपूर्व बंगाल) को किसी “गुप्त परमभट्टारक महाराजाधिराज पृथ्वीपति" के एक सामंत के अधिकार में पाते हैं।
इस काल के पीछे हमें माधवगुप्त के पुत्र परम प्रतापी आदित्यसेन के पूर्वजों के नाम मिलते हैं । आदित्यसेन का जो शिलालेख अफसड़ गाँव ( गया जिले में ) में मिला है उसके अनुसार उनके पूर्वजों का क्रम इस प्रकार है-
(१) विष्णुवर्धन के शिलालेख का संवत् जिसमें जनेंद्र यशोधर्मन्
की विजय का वर्णन है।