( ३६ ) धीरे धीरे बातचीत हो रही थी। महादेवी कहती थीं "प्रभाकर ! तुम्हारा इस प्रकार आपे के बाहर होना उचित नहीं है। अब तुम नव- युवक नहीं हो। मगध तुम्हारे मामा का राज्य है, यह भवन तुम्हारे मामा का है। तुम इस पाटलिपुत्र नगर में अतिथि होकर आए हो । तुम्हारा मातामहवंश बहुत प्राचीन है, आर्यावर्त में अत्यंत प्रतिष्ठित है। इस समय भी उत्तरापथ में तुम्हारे पितृ कुल की अपेक्षा मातृ कुल को लोग अधिक सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। दिनों के फेर से मेरा पितृ कुल इस समय दुर्दशा में है और तुम्हारा पितृ कुल बढ़ती पर है । इस लिए सम्राट पदवीधारी स्थाण्वीश्वर के राजा को क्या यही उचित है कि वह अपने मामा के यहाँ अतिथि होकर आए और उसका अपमान करे ?" महादेवी यह बात बहुत धीरे-धीरे कह रही थीं। उनका स्वर इतना धीमा था कि उस कोठरी के बाहर से उसे कोई नहीं सुन सकता था। प्रभाकरवर्द्धन उत्तेजित होकर कहने लगे “महादेवी! आप आदि से अंत तक मेरी बात उन्हें रोक कर महासेनगुप्ता बोली "प्रभाकर ! मैं तुम्हारी माता हूँ। जो कुछ तुम कहा चाहते हो मैं सब समझती हूँ। पाटलिपुत्र के उदंढ नागरिक एकदम निर्दोष हैं यह मैं नहीं कहती। पर उन्होंने थानेश्वर के सैनिकों का अत्याचार देख कर ही उत्तेजित होकर हमारे शिविर पर आक्रमण किया है।" बात कटती देख स्थाण्वीश्वर के सम्राट के मुँह के कोने पर कुछ ललाई दिखाई दी। उन्होंने बड़े कष्ट से अपने भाव को छिपा कर कहा "आपकी जो इच्छा हो, करें ।" महा-मैं तुम्हारे सामने ही कल की घटना से संबंध रखने वाले लोगों को बुलाकर विचार करती हूँ, तुम कुछ न बोलना । यदि कुछ
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