( ३३ ) पर उससे भी पुरानी लोहे की एक पेटी जकड़बंद करके रखी हुई थी। वृद्ध ने बड़ी कठिनता से भृत्य की सहायता से उसे खोला और उसके भीतर से फूलों की सूखी मालाओं से लपेटी हुई पुराने कपड़े की एक पोटली बाहर निकाली । पोटलो खोलने पर उसमें से हीरों से जड़ा हुआ एक पुराना कंगन निकला । वृद्ध' ने उसे भृत्य के हाथ में देकर कहा "तुम इसे लेकर बस्ता में जाओ, और धनसुख सोनार के हाथ बेच आओ । जो कुछ दाम मिले उसमें से कुछ का आटा और गेहूँ भी लेते आना।" कंगन देते समय वृद्ध का हाथ काँपता था। पुराने परिचारक ने यह बात देखी ओर उसकी दोनों आँखों में आँसू भर आए। किंतु आज्ञा पा कर वह चुपचाप चला गया। वृद्ध कोठरी में बैठ गया। उसके दोनों नेत्रों से अश्रुधारा वेग से छूट कर तुषारखंड सी श्वेत लंबी मूछों पर होती झरने के समान बह रही थी। बालिका कोठरी के द्वार पर खड़ा चुपचाप अपने पितामह की यह दशा देख रही थी। जिस समय की बात हम लिख रहे हैं उस समय गुप्तसाम्राज्य की बढ़ती के दिन पूरे हो चुके थे । मगध, अंग, और राढ़ि देश को छोड़ और सारे प्रदेश गुप्तवंश के हाथ से निकल चुके थे। तीरभुक्ति और बंगदेश भी एक प्रकार से स्वतंत्र हो चुके थे। प्रादेशिक शासनकर्चा नाम मात्र के लिये अधीन बने थे, वे राजधानी में कभी कर नहीं भेजते थे । इतना अवश्य था कि उन्होंने प्रकाश्य रूप में अपनी स्वाधीनता को घोषणा नहीं की थी । गुप्त साम्राज्य के समय में जिन लोगों ने अधिकार और मान मर्यादा प्राप्त की थी वे अधिकांश मगध और गौड़ के रहनेवाले थे । गुप्तवंश के अभ्युदय-काल में नए जीते हुए देशों में पुरस्कारस्वरूप उन्हें बहुत सी भूमि मिली हुई थी । अपनी भूमि की रक्षा के लिये बहुतों को देश छोड़ कर विदेश में रहना पड़ता था। पर कुछ लोगों को मगध बाहर जाने की छुट्टी नहीं मिलती ev
पृष्ठ:शशांक.djvu/५३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।