( ३२ ) वृद्ध बहुत देर से दातुन कर रहा था। उसकी प्रातःक्रिया पूरी भी न हो पाई थी कि पूर्व के द्वार की ओर पैरों की आहट सुनाई दी। देखते देखते एक अत्यंत सुंदर बालिका, जिसके धुंघराले बाल इधर- उधर लहरा रहे थे, दौड़ती-दौड़ती बाहर आई और वृद्ध को देख उसे पकड़ने के लिये लपकी पर चिकने पत्थरों पर फिसल कर गिर पड़ी । वृद्ध और एक परिचारक ने उसे दौड़ कर उठाया ) उसे बहुत चोट नहीं लगी थी । बालिका उठ कर हाँफती हाँफती बोली, "बाबा ! नन्नी कहती है कि घर में आटा नहीं है, हम लोग खायँगे क्या?" वृद्ध बालिका के सिर पर हाथ फेरता हुआ बोला “कुछ चिंता नहीं, घर में गेहूँ होगा, रग्धू अभी पीस कर आटा तैयार किए देता है।" बालिका बोली “नन्नी रोती है, कहती है कि घर में एक दाना गेहूँ भी नहीं है ।” उसकी बात सुन कर वृद्ध की आकृति गंभीर हो गई। उन्होंने कहा “अच्छा, मैं अभी शिकार लिए आता हूँ। रग्घू ! मेरा धनुष तो ला ।” परि- चारक दुर्ग के भीतर गया। बालिका अपने दादा को ज़ोर से पकड़कर सिसकते सुर में बोली "बाबा ! चिड़िया और हिरन का मांस मुझसे नहीं खाया जाता, न जाने कैसी गंध आती है।" वृद्ध ठक खड़े रहे । भृत्य धनुष और बाण लेकर अप्पा पर वृद्ध का ध्यान उसकी ओर न गया । बालिका अपने बाबा की चेष्टा देखती खड़ी रही। कुछ देर पीछे वृद्ध का ध्यान टूटा, एक बूँद आँसू टपक कर उनकी सफेद-सफेद मूछों पर पड़ा । वृद्ध ने परिचारक से कहा "तू धनुष बाण रख कर मेरे साथ भीतर आ।” वे बालिका को लिए भीतर की ओर चले। धीरे-धीरे दुर्ग के आँगन को पार करते हुए, जिसमें कभी सफ़ाई न होने के कारण घास और पौधों का जंगल सा लग रहा था, वृद्ध दूसरे कोट के नीचे की एक छोटी कोठरी में घुसे । बगल की एक कोठरी में बुढ़िया दासी नन्नी गेहूँ न देख कर ज़ोर-जोर से रो रही थी। वृद्ध को देखते ही वह सहमकर चुप हो गई । कोठरी के एक कोने में लकड़ी के एक बहुत पुराने पाटे
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