- मुसलमानों के आने पर रोहिताश्व-दुर्ग रोहतासगढ़ कहलाने लगा। पठान और मोगल राजाओं के समय में रोहतास का क़िलेदार सूत्रा बिहार की दक्खिनी सीमा का रक्षक माना जाता था। शेरशाह, मान- सिंह, इसलाम खाँ, शाइस्ता खाँ इत्यादि इस दुर्ग में बहुत दिनों तक रहे हैं । सब इस पुराने दुर्ग में अपना कोई न कोई चिह्न छोड़ गए हैं । अत्यंत प्राचीन काल में, जिसका कोई लेखा स में नहीं है, इस दुर्ग की नींव पड़ी थी । पर्वत का जो अंश नदी के गर्भ तक चला गया था उसी के ऊपर यह दुर्जय दुर्ग उठाया गया था। दूर से उसके टीले को देखने से यही जोन पड़ता था कि वह सोन नद के बीचोबीच उठा हुआ जिस समय की बात हम लिख रहे हैं वह आज से तेरह सौ वर्ष पहले का हज़ार वर्ष से ऊपर हुए कि सोन अपनी धारा क्रमशः बदलने लगा। अब सोन नद न तो पाटलिपुत्र के नीचे से होकर बहता है न रोहिताश्वगढ़ के। हज़ार वर्ष पहले जहाँ सोन की धारा बहती थी वहाँ अब हरे भरे खेत और अमराइयों से घिरे हुए गाँव दिखाई पड़ते हैं। विंध्यपर्वत का अंचल अब नदी के तट से बहुत दूर प्राचीन रोहिताश्वगढ़ पर्वत की चोटी पर था। गढ़ भीतरी और बाहरी दो भागों में बँटा था। बाहरी या नीचे का भाग उस लंबे चौड़े टीले को पत्थर की चौड़ी दीवार से घेर कर बनाया गया था। दूसरे कोट के भीतर का भाग अपरिमित धन लगाकर ऊँची नीची पहाड़ी भूमि को चौरस करके बना था। इसकी लंबाई चौड़ाई यद्यपि सौ हाथ से अधिक न होगी पर यह अत्यंत दुर्गम और दुर्जेय रहा है । रोहिताश्व के इतिहास में यह अंतर्भाग दो बार से अधिक शत्रुओं के हाथ में नहीं पड़ा । इसी रोहिताश्वगढ़ के उत्तरी तोरण ( फाटक) के नीचे एक मोटा ताज़ा बुड्डा बैठा दातुन कर रहा था ।
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