वज्रा०- (३८६) शशांक-प्रभो ! कौन सी बात? -दक्षिण चले जाने की। शशांक- प्रभो! आप सर्वज्ञ हैं । वज्रा०-महाराज ! सर्वज्ञ कोई नहीं-मैं तो लोकचर मात्र हूँ, एक स्थान पर कभी नहीं रहता। वसुमित्र और अनंतवमा अपनी सेना के साथ माधवगुप्त को ले जाकर मगध के सिंहासन पर बिठाएँ । हर्षवर्द्धन नहीं रोक सकते, उन्हें शीघ्र ही अपनी सेना पूर्व से हटानी पड़ेगी। आप माधवगुप्त को मगध के सिंहासन पर निर्विघ्न रखने के लिए कलिंग और दक्षिण कोशल के दुर्गम पहाड़ी प्रदेश में गुप्तवंश के गोरवरक्षक के रूप में अवस्थान करें। अदृष्ट चक्र की गति यही कह रही है । बस, महाराज !" देखते देखते वृद्धं वज्राचार्य वृक्षशाखा पर सवार होकर बालू के मैदान में न जाने किधर निकल गए। फिर वे वहाँ दिखाई न पड़े। इतने में घोड़ों की टापें फिर सुनाई पड़ीं। एक दूत ने आकर सैन्यभीति, वोरेंद्रसिंह और माधववम्मा के आने का समाचार दिया । समुद्र के तट पर फिर शिविर स्थित हो गए। एक बड़े शिविर के भीतर सम्राट शशांक, माधवगुप्त, अनंतवर्मा, माधववर्मा, सैन्यभीति और वीरेंद्र सिंह बैठकर मंत्रणा कर रहे हैं । स्थिर हुआ कि वसुमित्र, अनंतबम्मा और माधववर्मा माधवगुप्त को साथ लेकर मगध पर चढ़ाई करें। जब तक वे माधवगुप्त को मगध के सिंहासन पर बिठाकर न लौटें तब तक सम्राट् वहीं अवस्थान करें। उनके लौट आने पर दक्षिण की यात्रा हो । सैन्यभीति ने कहा- "महाराजाधिराज ! मैं वातापिपुर से कई बार दक्षिण कोशल और कलिंग की ओर गया हूँ। मैं उन प्रदेशों से पूर्णतया परिचित हूँ। गुप्तवंश का स्मरण वहाँ की प्रजा में अब तब बना हुआ है। बौद्धसंघ ,
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