(३८८ । शशांक-सेवा कराने के लिए समुद्रगुप्त के वंशधर से ? सम्राट की आँखों से चिनगारियाँ निकलने लगीं। वे उठ बैठे और कड़क कर बोले "माधव ! तुम समुद्रगुप्त के वंशधर हो । तुम्हारा मोह छूट गया, अब तुम मगध के सिंहासन के अधिकारी हो । तुम्हीं से यदि समुद्रगुप्त का वंश चलेगा तो चलेगा। मेरे स्त्री पुत्र कोई नहीं, और न कभी होंगे। मैंने अब तक विवाह नहीं किया है और न कभी करूँगा । मैं राज भोगने के लिए युद्ध नहीं कर रहा हूँ, मुझे राज्य की आकांक्षा नहीं हैं। मगध में गुप्तवंश का अधिकार स्थिर रखने के लिए ही मैंने शस्त्र उठाया है। मेरे जीते थानेश्वर राजवंश का कोई पुरुष या सामंत मगध के सिंहासन पर पैर नहीं रख सकता । अनंत !" अनंत-महाराज! शशांक-जिस प्रकार से हो माधवगुप्त को मगध के सिंहासन पर प्रतिष्ठित करना होगा। सम्राट के मुँह से इतना निकलते ही अश्वारोही सेना जयध्वनि करने लगी। सम्राट की पदातिक सेना भी पास आ गई थी। उसने भी शशांक का नाम लेकर भीषण जयध्वनि के बीच उस बालू के मैदान में रमणी के अत्यंत मधुर और कोमल कंठ से निकला हुआ गुप्तवंश के गौरव का गीत कहीं से आकर कान में पड़ने लगा । मंत्रमुग्ध के समान चकित खड़े रहे। किसी को यड़ रहस्य समझ में न आया । सब यही समझे कि वनदेवी प्रसन्न होकर गा रही है। सम्राट ने पूछा “अनंत ! वसुमित्र और सैन्याति कहाँ है ?" वज्राचार्य-महाराज के घायल होने का संवाद उन्हें भी मिल चुका है, वे भी पहुँचा चाहते हैं । महाराज ! यशोधवलदेव की बात का. सब लोग स्मरणा है ?
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