( २० ) रोषरुद्ध कंठ से बालक ने फिर पूछा “क्या कहा ?” किसी से कुछ उत्तर न बन पड़ा। जो कर्मचारी परिचारकों के काम की देखरेख करता था वह वेदी के पास आया और बालक को अभिवादन करके सामने खड़ा हो गया । बालक ने पूछा “तुम किसकी आज्ञा से वेदी पर नया सिंहा- सन रख रहे हो ?" कर्मचारी उत्तर देने में इधर-उधर करने लगा, फिर बोला “मैंने सुना है-"। उसकी बात भी पूरी न हो पाई थी कि बालक एक फलांग में वेदी के ऊपर जा पहुँचा और पैर से ठुकराकर नए सिहासन को दस हाथ दूर फेंक दिया। सिंहासन काले पत्थर की फर्श पर धड़ाम से गिरकर खंड-खंड हो गया। परिचारक डर के मारे मंडप से भाग खड़े हुए। कर्मचारी भी बालक की आकृति देख भागने ही को था इतने में थोड़ी दूर पर एक द्वार पर का हरा पर्दा हटा और एक लंबा अधेड़ योद्धा और एक दुबली पतली बुढ़िया बहुत से विदेशी सैनिकों से घिरी आ पहुँची। वृद्धा ने पूछा “यह कैसा शब्द हुआ ?" सब चुप रहे । कुमार शशांक और उसके अमात्य को छोड़ वहाँ और कोई उत्तर देनेवाला था भी नहीं। अमात्य तो उन दोनों को देख इतना सूख गया था कि उसके मुँह से एक शब्द तक न निकला । कुमार कुछ कहना ही-चाहता था पर मुँह फेरकर रह गया । वृद्धा ने फिर पूछा। कर्मचारी ने उत्तर देने की चेष्टा की पर उसकी घिग्घी सी बँध गई, मुँह से स्पष्ट शब्द न निकले। बालक ने तब अवज्ञा से मुँह फेरकर कहा "परिचारकों ने पिताजी के सिंहासन के पास थानेश्वर के राजा का सिंहासन रख दिया था। मैंने उसे पैरों से ठुकराकर चूर कर दिया ।” बालक के ये तेजभरे वाक्य उस पुराने सभामंडप में गूंज उठे। सुनते ही उस अधेड़ योद्धा का मुँह लाल हो गया। उसके साथ के सैनिकों की तलवारें म्यानों में खड़क उठीं। कर्मचारी तो वह झनकार सुनते ही साँस छोड़कर भागा । वृद्धा वेदी के पास बढ़ आई और बालक का हाथ थाम उसे नीचे उतार लाई। इधर अधेड़ योद्धा म्यान
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