( ३७७ ) संवाद लेकर गए। एक तरुण सेनानायक अपनी इच्छा से दूत होकर मंडला की ओर गया। पहर दिन चढ़ते चढ़ते कामरूप की सेना ने फिर नगर पर आक्रमण किया। पहर भर तक युद्ध होता रहा । माधववर्मा और रविगुप्त ने कई बार शत्रुसेना को पीछे भगाया । तब तो भास्करवा की सेना ने नगर के चारों ओर पड़ाव डालकर घेरा किया। भास्करवा की सेना नित्य दो तीन बार नगर के प्राकार पर धावा करती, पर हार खाकर पीछे हटती। इसी तरह करते एक महीना बीत गया पर न तो वसुमित्र के शिविर से और न मंडलागढ़ से दूत लौटकर आया। कामरूप की सेना बार बार पराजित होकर भी निरस्त और हतोत्साह न हुई। यह देख माधववर्मा और रविगुप्त बड़ी चिंता में पड़ गए । लगातार लड़ते लड़ते दिन दिन सेना घयली जाती थी, पर शत्रु के शिविर में नित्य नई नई सेना आती जाती थी। कर्णसुवर्ण का प्राकार नया तो अवश्य था, पर वह पाटलिपुत्र या मंडला के प्राकार के समान दृढ़ और स्थायी नहीं था। प्राकार जगह जगह से गिरता जाता था। आक्रमण भी रोकना और उसे ठीक भी करमा कठिन हो गया। धीरे धीरे दुर्ग के भीतर सेना का अभाव हो गया। माधववर्मा ने देखा कि अब नगररक्षा नहीं हो सकती। वे बचे हुए लोगों को लेकर शत्रु सेना को चीरते फाडटे निकल पड़े। पास की शत्रुसेना मुट्ठी भर लोगों पर टूट पड़ी। अँधेरी थी। शेष शत्रुसेना को पता न चला कि कितने लोग बाहर निकल रहे हैं। जो जहाँ थे वहीं निकलनेवालों की खोज में रात व्यग्र हो उठे रात के सन्नाटे में केवल पाँच सात सानकों के साथ रविगुप्त और माधववर्मा शत्रुशिविर से बहुत दूर निकल आए। माधवर्मा
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