( १६ ) थीं जिनपर राजवंश के लोग तथा युवराजपादीय% और कुमारपादीया अमात्यगण बैठते थे। इन वर्गों में जिनकी गिनती नहीं थी वे अलिंद में आसन नहीं पा सकते थे। मत्स्य देश से आए हुए दूध से श्वेत मर्मर पत्थर की ऊँची वेदी के ऊपर सम्राट का सिंहासन रहता था। वेदी के तीन और सीढ़ियाँ थीं। वेदी के ऊपर सोने के चार डंडों पर झलझलाता हुआ चँदवा तनता था। चंद्रातप के नीचे राजसिंहासन मुशोभित होता था। परिचारिक मर्मर की वेदी धोकर और उसपर पारस्य देश का गलीचा बिछाकर सोने के दो सिंहासन रख रहे थे। कुछ परिचारक चँदवे में मोती की झालरें लटकाने में लगे थे, कुछ दोनों सिंहासनों के पीछे चाँदी के उज्ज्वल छत्र लगा रहे थे । वेदी के एक किनारे बैठा एक कर्मचारी परिचारकों के काम की देखरेख कर रहा था । कई दिन पहले जो पिंगलकेश बालक सोन और गंगा के संगम पर पुराने राजप्रासाद की खिड़की पर खड़ा जलधारा की ओर देख रहा था वह सभामंडप में आकर इधर-उधर घूम रहा था । घूमता घूमता वह वेदी के सामने आ खड़ा हुआ । उसे देखते ही परिचारक थोड़ी देर के लिये काम नंद करके खड़े हो गए । बालक ने पूछा “यह नया सिंहा- सन किसके लिये है ?" एक परिचारक बोला “थानेश्वर के लिये।” बालक चौंक पड़ा। उसका सुंदर मुखड़ा क्रोध से लाल हो गया और उसने हाथीदाँत की एक चौकी उठा ली। हाथ के झटके से चौकी उखड़ गई। परिचारक डर के मारे दो हाथ पीछे हट गए। सम्राट के युवराजपादीय = वे अमात्य या राजकर्मचारी जिन्हें युवराज के बराबर सम्मान प्राप्त था। कुमारपादीय = वे अमात्य या राजपुरुष जिनका सम्मान अन्य राजकुमारों के समान था।
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