(३६६ ) श्वरराज के बीच युद्ध चल रहा था पर हर्षचरित में कहीं शशांक और कामरूपराज सुप्रतिष्ठित वर्मा या उनके छोटे भाई भास्करवा के बीच पंकसी प्रकार के विग्रह का आभास नहीं पाया जाता। हर्षवर्द्धन का राज्य कामरूप के पास तक भी नहीं पहुंचा था अतः कामरूप के राजा आपसे आप क्यों थानेश्वर के राजा के साथ संधि करने गए यह बात अब तक ऐतिहासिकों की समझ में नहीं आई है। जान पड़ता है कि यह राष्ट्रनीति-कुशल हर्षवर्द्धन की एक चाल थी। .हर्षवर्द्धन ने जब किसी प्रकार युद्ध समाप्त होते न देखा तब उन्होंने माधवगुप्त को पाटलिपुत्र भेजा और उन्हें ही मगध का प्रकृत राजा प्रसिद्ध किया । बंधुगुप्त और बुद्धघोष की मृत्यु के पीछे महाबोधि विहार के स्थविर जिनेंद्रबुद्धि उच्चरापथ के बौद्ध संघ के नेता हुए। उनकी उत्तेजना से गौड़, मगध, वंग और राढ़ देश की बौद्ध प्रजा भड़क उठी । शशांक बड़े फेर में पड़े। उन्हें मगध की रक्षा के लिए सैन्यभीति को रोहिताश्वगढ़ और वसुमित्र को गौड़ नगर भेजना पड़ा। इसी बीच में कामरूपराज के भाई भास्करवा ने वंगदेश के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया। प्रतिष्ठानपुर में विद्याधरनंदी और कर्णसुवर्ण में रामगुप्त की मृत्यु हो जाने से शशांक को विश्वासपात्र पुरुषों का बड़ा अभाव हो गया । जो नए नए कर्मचारी हुए वे भीतर भीतर शत्रु की ओर मिलने लगे । हर्षवर्धन धन दे देकर सब को मुट्ठी में करने लगे। शशांक ने विवश होकर माधववर्मा को कर्णसुवर्ण लौट जाने की आज्ञा दी-और वे आप प्रतिष्ठानपुर में ही जमे रहे। शशांक के बहुत दिन राजधानी से दूर रहने के कारण मगध में घोर अव्यवस्था फैल गई। बौद्धसंघ के नेताओं की सहायता से माधवगुप्त ने रोहिताश्व, मंडला, पाटलिपुत्र और चंपा इत्यादि कुछ प्रधान दुर्गों को छोड़ मगध और तीरभुक्ति के और सब मुख्य मुख्य नगरों और ग्रामों पर अधिकार कर २४
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