यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( ३६८)- प्राचीन कर्णसुवर्ण नगर के खंडहर फैले हुए हैं। नारायणशर्मा और रामगुप्त कर्णसुवर्ण आकर नया नगर निर्माण कराने में लगे। पाटलिपुत्रः के नए और पुराने राजभवन गिरने पड़ने लगे। शशांक पाटलिपुत्र छोड़ जल्दी जल्दी पश्चिम की ओर बढ़े। चरणा- द्रिगढ़ में पहुँचकर उन्होंने हर्षवर्द्धन के कान्यकुब्ज पर अधिकार करने और नरसिंहदत्त के मारे जाने का संवाद पाया यह पहले कहा जा चुका है । हरिगुप्त ने आगे बढ़ कर प्रतिष्ठान को तो शत्रुओं के हाथ से छुड़ाया पर वे और विद्याधरनंदी मिलकर भी कान्यकुब्ज की ओर न बढ़ सके । पूर्व की ओर लौहित्या (ब्रह्मपुत्र ) के किनारे जाकर वीरेंद्र- सिंह और माधववर्मा ने भास्करवा को रोका। शशांक ने प्रतिष्ठान- दुर्ग में पहुँचकर सेना का नेतृत्व अपने हाथ में लिया। अखंड युद्ध चलने लगा। महीने पर महीने, वर्ष पर वर्ष बीत गए, पर.युद्ध समाप्त न हुआ । हर्षवर्द्धन की प्रतिज्ञा पूरी न हुई। वे न तो राज्यवर्द्धन की मृत्यु का बदला ले सके, न शशांक को सिंहासन पर से हटा सके । युद्ध छिड़ने से पाँच छ वर्ष पर प्रवीण महावलाध्यक्ष हरिगुप्त की मृत्यु हुई। उनके स्थान पर अनंतवर्मा नियुक्त हुए। कुछ दिन पीछे कर्णसुवर्ण नगर में महाधर्माध्यक्ष नारायणशर्मा की भी मृत्यु हुई । एक एक करके. पुराने राजकर्मचारियों के स्थान पर नए नए लोग भरती होने लगें । हर्षवर्द्धन जब किसी प्रकार से शशांक को पराजित न कर सके तब उन्होंने एक नया उपाय निकाला। हर्ष राजनीति की टेढ़ी चालें चलने में बड़े कुशल थे । शशांक से युद्ध आरंभ होने के पहले ही कामरूप के राजा के साथ उन्होंने संधि कर ली थी। 'हर्षचरित' में वाण-भट्ट ने हर्ष के शिविर में कामरूप राज के दूत हंसवेग के आने का जो विवरण लिखा है उसले देखने से जान पड़ता है कि कामरूप के राजा ने अपने- आप दूर्ण से सहायता माँगी थी। उसके पहले से शशांक और थाने