करते समय तक्ष दत्त के पुत्र चित्रा का सारा शोक भूल गए और अंत में परम शांति को प्राप्त हुए। महाराजाधिराज ! उन्हीं की आज्ञा से मैं आपके निकट कान्यकुब्ज के युद्ध का संवाद देने आया हूँ। गंगातट पर गरुड़ध्वज को छाती पर रखकर आपका नाम स्मरण करते करते नरसिंह- दत्त अमरलोक को सिधारे । उसके पीछे दो सहस्त्र में से जो दस बीस बचे थे वे हाथ मे खड्ग लेकर हँसते हँसते कान्यकुब्ज की समुद्र सी उमड़ती सेना के बीच कूद पड़े। महाराज ! वे वीर थे, वे प्रातःस्मरणीय थे, उनमें से एक भी जीता न बचा"। चरणाद्रिगढ़ के नीचे एक चट्टान पर बैठे शशांक वृद्ध सैनिक के मुँह से कान्यकुब्जदुर्ग के पतन का वृत्तांत सुन रहे थे । अनंतवा पत्थर की मूर्ति बने उनके पीछे खड़े थे। कुछ दूर पर सहस्रों सैनिक मुग्ध होकर नरसिंहदत्त के अपूर्व वीरत्व की कहानी सुन रहे थे । कहानी पूरी होते होते मागध सेना गद्गद होकर बार बार जयध्वनि करने लगी। वृद्ध सैनिक मूछित होकर भूमि पर गिर पड़ा। सम्राट् ठगमारे से पत्थर की चट्टान पर बैठे रहे । थोड़ी देर में अनंतवमा ने धीरे से पूछा “सैनिक ! क्या तुम महानायक नरसिंहदत्त की देह को कान्यकुब्ज में योंही छोड़ कर चले आए ?" वृद्ध बोला "नहीं प्रभो ! मैं नरसिंहदत्त का सब संस्कार करके तब कान्यकुब्ज से चला हूँ। उस समय भी युद्ध हो रहा था । वसुमित्र के नगर छोड़कर चले जाने पर थानेश्वर की सेना ने नगर पर अधिकार कर लिया था । जब नरसिंहदत्त चिता पर गए तब गढ़ के भीतर जो योद्धा बचे थे वे फाटक खोलकर बाहर निकल आए और शत्रु की असंख्य सेना पर टूट पड़े। उनकी बात सुन कर शशांक को कुछ चेत हुआ। उन्होंने वृद्ध से कहा, "भाई! तुम नरसिंहदत्त की आज्ञा का पालन तो कर चुके,
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