( ३६२) उसी क्षण तरुण सम्राट् नंगे पैर नगर के बाहर हुए।. एक पक्ष के भीतर प्राचीन पाटलिपुत्र नगर उजाड़ हो गया। कई सौ वर्ष तक शशांक के शाप के भय से कोई पाटलिपुत्र में न बसा । चौदहवाँ परिच्छेद आत्मोत्सर्ग "क्या कहा ?" "सच कहता हूँ, महाराज ! मैंने वंगदेश और प्रतिष्ठानपुर में उनका तलवार चलाना देखा था, उनका अद्भुत पराक्रम मैं देख चुका हूँ। वे तक्षदत्त के पुत्र थे । नरसिंहदत को छोड़ ऐसी अद्भुत वीरता और कोई नहीं दिखा सकता। "क्या यह सच है ?" "सच है; महाराज ! बीस वर्ष इन्हीं हाथों में गरुड़ध्वज लेकर चला हूँ | जिन्होंने शंकरनद के किनारे और प्रतिष्ठानदुर्ग में नरसिंहदत्त को युद्ध करते देखा है वे क्या कभी उन्हें भूल सकते हैं ? महाराज ! इन्हीं हाथों में गरुड़ध्वज लिए हुए प्रतिष्ठानदुर्ग के परकोटे पर मैं चढ़ा हूँ, सहस्रों गौड़ वीरों की मृतदेह के ऊपर पैर रखता हुआ, सर्वांग में उष्णरक्त लपेटे मैंने उनका अनुसरण किया है। मैं उन्हें कभी भूल नहीं
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