(३६०) बढ़ने न देंगे। यदि इस समय हमलोग चल कर हर्षवर्द्धन के पैर न उखाड़ेंगे तो साम्राज्य का मंगल नहीं है। अनंत-प्रभो ! मुझे तो आज्ञा मिले तो मैं इसी क्षण चलने के लिए प्रस्तुत हूँ। सैन्यभीति भी तैयार हैं । शशांक-रोहिताश्वगढ़ की सेना तो वंगदेश की ओर जायगी। अनंत-वे महाराज ही साथ रहना चाहते हैं। शशांक-अच्छी बात है । क्यों दूत ! विद्याधरनंदी प्रतिष्ठानदुर्ग में कैसे घिर गए ? दूत-महाराजाधिराज ! बौद्धाचार्यों के भड़काने से सारे मध्य- देशवासी विद्राही हो गए हैं। बौद्धाचार्यों ने घूम घूम कर उपदेश दिया है कि राजा बौद्ध नहीं है इससे सद्धम्मियों को उसकी आज्ञा में रहना उचित नहीं है। यह बातचीत होही रही थी कि फुलवारी के पीछे के पेड़ों के बीच से एक आदमी दौड़ा दौड़ा आया और सम्राट पर एक बरछा छोड़ा। चट दूसरे पेड़ की ओट से महाप्रतीहार विनयसेन निकल कर सम्राट के आगे खड़े हो गए। देखते देखते बरजा महाप्रतीहार की छाती को पार कर गया। विनग्रसेन का शरीर सम्राट के पैरों के नीचे धड़ाम से गिर पड़ा । अनंतवा दौड़ कर उस आततायी का सिर उड़ाना ही चाहते थे कि सम्राट उन्हें रोक कर विनयसेन का घाव देखने लगे । शशांक ने देखा कि बरछा वृद्ध महाप्रतीहार के हृदय को चीरता हुआ पार हो गया है, पर वे अभी मरे नहीं है। थोड़ी देर में वृद्ध महा- प्रतीहार ने आँखें खोली । यह देख शशांक ने पुकारा "विनय !' क्षीण स्वर में उचर मिला “महाराज"। यह क्या किया ?"
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