(३५४ ) दिया । जीवन मधुमय नहीं है, विषमय है। जो कुछ तुम्हारे हृदय में समा रहा है, उसे स्वप्नमात्र समझो, स्वप्न दूर करते क्या लगता है ?" "महाराज ! वह स्वप्न अब प्रत्यक्ष हो गया है, अब किसी प्रकार हट नहीं सकता। मैं पट्टमहादेवी बनना नहीं चाहती, मुझे सिंहासन पर बैठने की आकांक्षा नहीं है, मैं महाराज के चरणों के नीचे रहकर सेवा में दिन बिताना चाहती हूँ"! यह कह कर वह शशांक के चरणों पर लोट गई। हृदय के आवेग से व्याकुल होकर सारे आर्या- वर्च के चक्रवर्ती सम्राट् शशांक नरेंद्रगुप्त बैठ गए और अत्यंत कातर स्वर से कहने लगे “मालती, क्षमा करो । मैं ज्वाला से मरा जाता हुँ- विषम यंत्रणा है-चित्रा-"। सम्राट का गला भर आया। वे आगे और कुछ न कह सके । उनकी यह दशा देख मालती की आँखों से भी आँसुओं की धारा बहने लगी। उसने रोते रोते कहा "महाराज ! आपकी दशा देख मेरा हृदय विदीर्ण हुआ जाता है। जिस मूर्ति का मैं रात दिन ध्यान करती थी उसे इस अवस्था में देखू गी संसार की इस विचित्र गति का अनुमान मुझे न था। यदि इस लोक में कहीं चित्रादेवी होती तो मैं अपने प्राणों पर खेल उन्हें ढूँढ़ लाती और महाराज का प्रसन्नमुख देख कृतकृत्य होती। महाराज ! मैं पट्टरानी होना नहीं चाहती । राजभवन में सहस्रों दासियाँ होंगी, उन्ही में मेरी गिन्ती भी हो। बस, मुझे और कुछ न चाहिए। मेरा जीवन स्वप्नमय है । इतनी ही विनती है कि इस स्वप्न का भंग न कीजिए। मैं महाराज के साथ छाया के समान फिरकर इस स्वप्न को चलाए चलूँगी। कोई मुझे रोक नहीं सकता।" "यह नहीं हो सकता। कभी नहीं, मालती ? यह सब स्वप्न है- भूल जाओ क्षमा करो।" यह कह कर मगधेश्वर वहाँ से भाग खड़े हुए। उनके पिंगल केश
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