(३४८) सोचा कि चालुक्यराज द्वारा ही अन्याय से बढ़ते हुए थानेश्वर का- गर्व दूर हो सकता है। हा! अपना मनोरथ वे लिए हो चले गए। वृद्ध की आँखें डबडबा आई, बोलते बोलते वे शिथिल हो पड़े। थोड़ी देर में वे फिर कहने लगे "मगध साम्राज्य को क्रमशः थानेश्वर की अधीनता में जाते देखना उन्होंने पाप समझा। जाते समय वे अपना हृदय अपने पुत्र को दे गए। तरला! जो प्रतिज्ञा लेकर मैं अपनी लतिका को किसी वीर को देना चाहता था उसी प्रतिज्ञा से बद्ध मेरे परम सुहृद के पुत्र को अंतिम समय में लाकर भगवान् ने मेरे सामने खड़ा कर दिया । उसकी महिमा अपार है। मेरे रहते यदि बात पक्की हो जाती तो मैं लतिका और रोहिताश्वगढ़ दोनों चिंताओं से छुट जाता। तरला- तरला-प्रभो! आप निश्चिंत रहें। यह बात आपके सामने ही हो जायगी। यशोधवल०-एक बात का भारी खटका और है। यदि सम्राट ने विवाह न किया तो फिर गुप्तवंश का क्या होगा ? -प्रभो ! इसकी चेष्टा भी मैं करती हूँ। यशो०-अभी इसकी चेष्टा क्गा करोगी ? पहले सम्राट के योग्य कन्या भी तो कहीं मिले। [-कन्या तो मिली हुई है । यशो -कन्या मिली हुई है ? तरला-हाँ ! वह यहीं है। सैन्यभीति की बहिन, (मालती वृद्ध महानायक का चेहरा खिल उठा । वे बोल उठे “हाँ, हाँ ! बहुत ठीक ! रूप और गुण में तो अद्वितीय है।" तरला--सम्राट पर उसका अनुराग भी वैसा ही अद्वितीय है। पर सम्राट के चित्त की जो अवस्था है वह बेढब है। उनका मन तरला.
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