( ३४२ ) जाने क्या कहा । दूर रहने के कारण वीरेंद्रसिंह कुछ सुन न सके। यह देख लतिका ने कहा "बाबा पूछते हैं कि सम्राट आए या नहीं"। "नहीं अब तक तो नहीं आए हैं। मैं फाटक पर उनका आसरा देख रहा हूँ।"। यशोधवलदेव ने फिर न जाने क्या कहा । लतिका देवी ने कहा "जापिल ग्राम के मार्ग में सौ पंसाखेवाले भेजने के लिए कहते हैं। वीरेंद्रसिंह अभिवादन करके कोठरी के बाहर गए। थोड़ी देर में सौ आदमी हाथों में मशाल लिए जापिल के पत्थर जड़े हुए मार्ग पर थोड़ी थोड़ी दूर पर खड़े हुए । संध्या हो गई। दुर्ग के ऊपर बड़ा भारी अलाव जलाया गया। पहाड़ की घाटी में गाँव गाँव में दीपमाला जगमगा उठी । लापिल गाँव के पत्थरजड़े पथ पर बहुत से घोड़ों की टापें सुनाई पड़ी । पंसाखेवाले जल्दी जल्दी गढ़ के फाटक की ओर बढ़ने लगे । यह देख दुर्गरक्षी सेना फाटक पर और आँगन में श्रेणी बाँधकर खड़ी हो गई । वीरेंद्रसिंह यशोधवलदेव को सम्राट के आने का संवाद दे आए । थोड़ी ही देर में सम्राट ने गढ़ के भीतर प्रवेश किया वीरेंद्रसिंह के मुँह से महानायक की अवस्था सुनकर शशांक तुरंत उन्हें देखने चले । उन्हें देखते ही बुझता हुआ दीपक एक बार-जग- मगा उठा। मृत्युशय्या पर पड़े वृद्ध महानायक के शरीर में बल सा आ गया । सम्राट को देख कर वे उठकर बैठ गए। सम्राट् उनके सिरहाने बैठ गए। उनके साथ साथ एक अत्यंत सुंदर युवक भी सैनिक वेश में आया था। वह पीछे खड़ा हो गया। तरला और लतिका बार बार उसकी ओर ताकने लगीं। उसे उन्होंने शशांक के साथ और कभी नहीं देखा था। सम्राट को संबोधन करके महानायक कहने लगे "पुत्र ! तुम्हारी आया, पर अब चरण छूकर राह देखते देखते एक सप्ताह तक अप प्राण रखत
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