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(३४१) देना नहीं तो कुछ न कहना । मरने के पहले वे चाहते थे कि रोहिताश्व दुर्ग और लतिका के संबंध में सम्राट से कुछ ठीक कर लेते । इसी से वे मन ही मन घबरा रहे थे। वीरेंद्रसिंह विद्याधरनंदी के साथ मध्यदेश की ओर गए थे, पर महानायक की आज्ञा पाकर वे रोहिताश्व लौट आए हैं । संध्या को वीरेंद्रसिंह ही दुर्ग के फाटक पर बैठे प्रतीक्षा कर रहे हैं। राज्यवर्द्धन के मरने पर सम्राट को ज्यों ही यशोधवलदेव का समाचार मिला वे लौट पड़े । कान्यकुब्ज में वसुमित्र और प्रतिष्ठानपुर में विद्याधरनंदी को छोड़कर वे चट घोड़े की पीठ पर मगध की ओर चल पड़े । थानेश्वर में राज्यवर्द्धन की मृत्यु का संवाद पहुँचा । सिंहा- सन शून्य पड़ा रहा । अमात्यों और सेनापतियों ने बहुत दिनों तक हर्षवर्द्धन को अभिषिक्त न किया । ऐसी दुरवस्था के समय में भी शशांक नरेंद्रगुप्त ने थानेश्वर पर आक्रमण न किया। अपने प्रदेशों की रक्षा का प्रबंध करके वे चट पितृतुल्य वृद्ध महानायक के अंतिम दर्शन के लिये लौट पड़े । जिस दिन संध्या के समय वीरेंद्रसिंह फाटक पर प्रतीक्षा कर रहे थे उसी दिन सम्राट के रोहिताश्वगढ़ पहुँचने की बात थी। वे बीस दिन में दो सौ कोस चल कर उस दिन सोन के किनारे आ पहुँचे। संध्या हो गई और सम्राट न आए यह देखकर यशोधवलदेव ने वीरेंद्रसिंह को बुलाया । वीरेंद्रसिंह भवन में जाकर द्वार पर खड़े रहे। घर के भीतर यशोधवलदेव पलग पर पड़े थे। उनके सिरहाने लतिका देवी और पैताने तरला बैठी थी। महानायक अत्यंत दुर्बल हो गए थे, अधिक बोलने की शक्ति उन्हें नहीं थी। जिस समय वीरेंद्रसिंह कोठरी में आए उस समय उन्हें झपकी सी आ गई थी। थोड़ी देर में जब . उनकी आँख खुली, तब लतिका ने उनके कान में जोर से कहा "बाबा! वीरेंद्र आए हैं" । महानायक ने करवट ली और बड़े धीमे स्वर में न