ग्यारहवाँ परिच्छेद यशोधवलदेव मृत्युशय्या पर . संध्या होती जा रही है। सूर्यदेव पश्चिम की ओर विंध्याचल की आड़ में छिपे जा रहे हैं । दूर पर पहाड़ की चोटियाँ और वृक्षों के सिरे अस्ताचलगामी सूर्य की तापरहित किरनों से सुनहरी आभा धारण किये हुए हैं । रोहिताश्वगिरि के सिरे पर एक लंबा मेघखंड क्रमशः लाल होता जा रहा है । पर्वत के नीचे अब गहरा अँधेरा छा गया है। इसी समय गढ़ के पूरबी फाटक पर एक सैनिक बैठा मानो किसी की प्रतीक्षा कर रहा है। इन कई वर्षों के बीच रोहिताश्वगढ़ की दशा एक दम पलट गई है। बूढ़े अमात्य विधुसेन और स्वर्णकार धनसुख के उद्योग से गिरे हुए परकोटे फिर ज्यों के त्यों खड़े हो गए हैं, खाई में जल भरा हुआ जो दुर्ग कभी सुनसान पड़ा था वह सैनिकों से भर गया है। प्रत्येक फाटक पर सहस्र सैनिक रक्षा पर नियत हैं। ऊपर ऊँचे दुर्ग पर बहुत से लोगों का शब्द सुनाई पड़ रहा है। गढ़पति का पुराना प्रासाद अब झाड़ जंगल से भरा नहीं है। कई दिन हुए रोहिताश्व के गढ़पति पीड़ित होकर पाटलिपुत्र से लौट आए हैं । महानायक की दशा अच्छी नहीं है, उनके बचने की आशा नहीं है । मरणकाल समीप जानकर ही वे अपनी जन्मभूमि को देखने की इच्छा से रोहिताश्वगढ़ आए हैं । पाटलिपुत्र से सम्राट के पास. दूत भेजा जा चुका है। महानायक समझ गए हैं कि अब मेरा अंतिम समय निकट है । दूत से उन्होंने कह दिया था कि सम्राट् यदि युद्ध में विजयी हो चुके हों तभी संवाद
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