(३३७) आप युद्ध करने पर दृढ़ हैं यह बात मैंने सुनी। इससे आपको अपने विचार से हटाना क्षात्रधर्म के विरुद्ध है। इस संबंध में केवल एक बात मुझे कहनी है जो दूत के द्वारा नहीं कहलाई जा सकती थी । राज्य के लिए आपके और मेरे बीच झगड़ा है। इसके लिए सहस्रों मनुष्यों के प्राण नाश से क्या लाभ ? आप अस्त्रविद्या में पारंगत हैं, मैंने भी अपना सारा जीवन युद्ध में ही बिताया है। दोनों शिविरों के बीच आप तलवार लेकर मुझसे युद्ध करें । यदि मैं युद्ध में हारूँगा तो सम्राट की पदवी छोड़ अपनी सेना सहित चला जाऊँगा। यदि आप परा-- जित होगे तो आपको अपना राज्य न छोड़ना होगा, केवल जमुना और चंबल के पूर्व कभी पैर न रखने की प्रतिज्ञा करनी होगी। इससे भी यदि निबटेरा न हो तो दोनों पक्षों की सेनाएँ लड़ कर देख लें। शाक की बात सुन कर राज्यवर्द्धन सिर नीचा करके कुछ सोचने लगे, फिर अपने साथियों और अमात्यों से परामर्श करने लगे। अमात्यों की चेष्टा से प्रकट होता था कि वे राज्यवर्द्धन को ऐसा करने से रोक रहे हैं। पर राज्यवर्द्धन तरुण और उग्र स्वभाव के थे। उन्होंने उनकी बात न मानी। वे बोले “महाराज ! आप क्षत्रिय हो कर जब युद्ध की प्रार्थना कर रहे हैं तधे आपकी इच्छा पूर्ण न करना मेरे लिए असंभव है। आप समय और स्थान निश्चित करें।" "कल प्रातःकाल, सूर्योदय के पहले, गंगा के तट पर ।" "अस्त्रों में केवल तलवार रहे ?" "हाँ, ढाल किसी के पास न रहे ।" "साथ में कौन कौन रहें ?" "मेरे साथ माधव और अनंतवा रहेंगे।" 'मेरे साथ भंडी और ईश्वरगुप्त ।", दोनों एक दूसरे से विदा होकर अपने अपने शिविर में गए । लौटते समय अनतवर्मा ने कहा "महाराज ! यह आपने क्या किया?" २२
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