( ३३६ ) 1 १ माधवगुप्त से मिलकर वाराणसीभुक्ति पर अधिकार जमाने का उयोग किया इसी से नरसिंहदत्त ने चढ़ाई की। स्थाण्वीश्वरराज मेरे संबंधी हैं, उनके साथ लड़ाई करने की इच्छा मुझे नहीं है। आदित्यवर्द्धन और प्रभाकरवर्द्धन के समय में दोनों राज्यों के बीच जो मेल था उसे मैं बनाए रखना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि थानेश्वरराज्य और मगध साम्राज्य के बीच जो सीमा है वह सब दिन के लिद निर्दिष्ट हो जाय । इसके लिए मैं राज्यवर्द्धन से मिलना चाहता हूँ। सीमा पर कई छोटे छोटे खंड राज्य हैं, जिनके कारण समय समय पर झगड़ा उठा करता है। सीमा यदि निर्दिष्ट हो जायगी तो फिर आगे चलकर किसी प्रकार के झगड़े की संभावना न रह जायगी। देवगुप्त ने कान्यकुब्ज पर जो सहसा आक्रमण किया था उसका प्रायश्चित्त उनके जीवन के साथ हो गया । उसके लिए अब झगड़ा बढ़ाना मैं नहीं चाहता। दो घड़ी में नारायणशर्मा ने लौट कर कहा “मेरा दौत्य व्यर्थ हुआ, राज्यवर्द्धन ने बड़े उद्धत भाव से सम्राट का प्रस्ताव अस्वीकृत किया । पर राजमर्यादा की रक्षा के लिए दोनों शिविरों के बीच गंगा तट पर महाराजाधिराज से मिलना उन्होंने स्वीकार किया है।" संधि असंभव समझ शशांक युद्ध के लिए प्रस्तुत होने लगे। नगर और दुर्ग पर आक्रमण करने की तैयारी उन्होंने की। विद्याधरनंदी थे । दूसरे दिन दोपहर को दोनों शिविरों के बीच के क्षेत्र में दोनों पक्षों के राजक्षत्र स्थापित हुए। दोनों पक्षों की सेना युद्ध के लिए खड़ी हुई। एक ही समय में शशांक और राज्यवर्द्धन अपने अपने शिविर से निकले । शशांक के साथ माधव, अनंत और पाँच शरीररक्षी थे। राज्यवर्धन के साथ भी दो अमात्य और पाँच सैनिक थे। दोनों ने अपने अपने छत्र के नीचे खड़े होकर एक दूसरे को. अभिवाद किया। उसके पीछे शशांक आगे बढ़कर बोले “महाराज ! अभी बहुत दूर .
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