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(३३०) n क्षमा करना। परामर्श और मंत्रणा का समय अब नहीं है। युद्ध करते जिनके बाल पके हैं उनसे क्षमा मांगकर कहता हूँ कि आज रणनीति के विरुद्ध महानायक यशोधवलदेव के उपदेश पर चलूंगा। प्रतिष्ठानदुर्ग भीषण और दुर्जेय है, बहुत बड़ी सेना से रक्षित है, यह सब मैं जानता हूँ। पर आज दुर्ग पर अधिकार करना ही होगा। वीर नायको! आज का यह युद्ध रणनीति के विरुद्ध है, आज के युद्ध में न लौटना है, न पराजय । कौन कौन मेरे साथ चलते हैं ?" सैंकड़ों तलवारें म्यान से निकल पड़ी। बालक, वृद्ध, प्रौढ़, तरुण सब ने खड्ग स्पर्श करके एक स्वर से प्रतिज्ञा की कि 'आज ही दुर्ग पर अधिकार करेंगे, युद्ध से कभी पीछे न फिरेंगे । प्रतिष्ठान दुर्ग आर्यावर्त भर में अत्यंत दुर्गम और दुर्जय प्रसिद्ध था। दुर्ग के चारों ओर की चौड़ी खाई सदा गंगा के जल से भरी रहती थी। दुर्ग चारों ओर से तिहरे परकोटों से घिरा था जो पहाड़ ऐसे ऊँचे और ढालू थे। दिन में तो दुर्ग के प्राकारों पर चढ़ना असंभव था इससे थानेश्वर की दुर्गरक्षी सेना रात को तो बहुत सावधान रहती थी, पर दिन को बेखटके विश्राम करती थी। इतिहास से पता चलता है कि जब जब प्रतिष्ठान दुर्ग पर शत्रुओं का अधिकार हुआ है तब तब अन्न जल के चुकने के कारण । बाहर से कोई शत्रु बल से दुर्ग के भीतर नहीं घुस सका है । पहर दिन चढ़ते चढ़ते मागध सेना को दुर्ग के आक्रमण की तैयारी करते देख स्थाण्वीश्वर के सेनानायक विस्मित हुए। उन्होंने रात भर जागी हुई सेना को दुर्ग प्राकार पर नियत किया। तीसरे पहर मागध सेना ने दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। स्थाण्वीश्वर के नायकों ने इसे बावलापन समझ दुर्ग रक्षा का कोई विशेष प्रबंध न किया। देखते देखते बाँस और लकड़ी की हजारों सीढ़ियाँ परकोटों पर लग गई। हजारों सैनिक उनपर से होकर प्राकार पर चढ़ने की