सातवाँ परिच्छेद यशोधवल की प्रतिहिंसा बंधुगुप्त का कहीं पता न लगा । महादंडनायक र विगुप्त के सामने महास्थविर बुद्धघोष का विचार हुआ। महास्थविर का राजद्रोह के अपराध में प्राण दंड की आज्ञा हुई। विचार के समय बुद्धघोष ने स्पष्ट कह दिया कि जो बौद्धधर्मावलंबी नहीं उसे बौद्ध लोग कभी राजा नहीं मान सकते। उसे सिंहासन से उतारने में, उसकी हत्या करने में कोई पाप नहीं है, महापुण्य है। बौद्धों के निकट प्रभाकरवर्द्धन ही देश के राजा हैं...प्रजापालक हैं, अतः राजद्रोह का अपराध मुझपर नहीं लग सकता। गंगाद्वार के सामने बुद्धघोष का कटा सिर सफेद बालू पर जा पड़ा । उत्तरापथ के बौद्धसंघ का कोई नेता न रह गया। भागते गीदड़ के समान बंधुगुप्त मगध के एक स्थान से दूसरे स्थान में छिपता हुआ अंत में फिर पाटलिपुत्र लौट आया । राजपुरुष उसकी खोज बाहर बाहर कर रहे थे इससे वह समझा कि राजधानी में चलकर कुछ दिन शांति से रहूँगा । वह पाटलिपुत्र पहुंचकर उस पुराने मंदिर के गर्भगृह में रहने लगा। दिन भर तो वह उसी अँधेरी कोठरी में पड़ा रहता, रात को खाने पीने की खोज में निकलता । यशोधवलदेव की छाया उसे सदा पीछे लगी जान पड़ती थी। जिस पुराने मंदिर के सामने तरला और जिनानंद ( वसुमित्र ) की भेंट हुई थी एक दिन संध्या के समय उसके पास दो अश्वारोही घूम रहे थे। दोनों अश्वारोही धीरे धीरे 'पुराने मंदिर की ओर बढ़ रहे
पृष्ठ:शशांक.djvu/३३५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।