यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(३१४ ) धवलदेव ने आकर विहारस्वामी जिनेंद्रबुद्धि से बंधुगुप्त का पता पूछा । उन्होंने कहा “बंधुगुप्त तो इधर बहुत दिनों से नहीं दिखाई पड़े ।” शशांक को उनकी बात पर विश्वास न आया। चारों ओर बंधुगुप्त की खोज हुई, पर कहीं पता न लगा! यशोधवलदेव की आज्ञा से संघाराम के एक एक भिक्खु ने बोधिद्रुम के नीचे का वज्रासन स्पर्श करके शपथ खाई कि "मैंने बंधुगुप्त को नहीं देखा है।" सब भिक्खुओं ने झूठी शपथ खाई । केवल एक भिक्खु ने शपथ नहीं खाई । यह वही रक्तांबर- धारी भिक्खु था। यशोधवलदेव ने जब बंधुगुप्त का पता पूछा तब उसने कहा “बंधु- गुप्त कहाँ है यह तो मैं नहीं कह सकता, पर वे किस मार्ग से गए हैं यह मैंने सुना है।" यशोधवल ने बड़े आग्रह से पूछा “किस मार्ग से ?” भिक्खु बोला "सुरंग के मार्ग से. 19? “सुरंग कहाँ है ?" "वज्रासन और बौधिद्रुम के नीचे ।" क्रोध से विहारस्वामी जिनेंद्रबुद्ध का मुँह लाल हो गया; बड़ी कठिनता से अपना क्रोध रोककर उन्होने सम्राट से कहा "महाराजा- धिराज ! बोधिद्रुम के नीचे कोई सुरंग नहीं है।" शशांक-है या नहीं यह तो अभी देखा जाता है । जिनेंद्र-सर्वनाश, महाराज ! बोधिद्रुम पर हाथ न लगाएँ । शशांक-क्यों, क्या होगा ? जिनेंद्र-सृष्टि के आदि से बुद्धगण इसके नीचे बैठ 'बुद्धत्व प्राप्त करते आए हैं, इसका एक पत्ता छूने से भी महाराज का मंगल न होगा। शशांक- अमंगल ही होगा न ?