( १३ ) वृद्ध बोला "थोड़ी दूर और चलने पर किसीके घर में या किसी गाँव में ठहरने का ठिकाना मिलेगा। यहाँ रास्ते में रुकने से अँधेरा हो जायगा, फिर चलना कठिन हो जायगा"। बालिका कहती थी "बाबा ! अब मैं और नहीं चल सकती, मेरे पैर कटे जा रहे हैं। मैं तो अब बैठती हूँ" । बालक बोला "बहिन, तू गदहे की पीठ पर आ जा, मैं पाँव पाँव चलूँ" । बालक की बात सुनकर बालिका और वृद्ध दोनों हँस पड़े । बालक चुपका हो रहा। कुछ दूर जाते जाते बालिका सचमुच बैठ गई । सड़क से हटकर एक ऊँची जगह देख वह ठहर गई । बुड्ढे ने कहा "बेटी ! बैठ गई ?" उत्तर का आसरा न देख वृद्ध भी उसके पास जा बेठा । गदहा भी बालक को पीठ पर लिए आ खड़ा हुआ। अब चारों ओर घोर अंधकार छा गया । कुछ क्षण के उपरांत बालक बोल उठा 'बाबा ! बहुत से घोड़ों की टाप सुनाई देती है।" बुड्ढा चौंककर उठ खड़ा हुआ। राजपथ के किनारे धान के खेतों के बीच आम का एक पुराना पेड़ था। उसके नीचे अंधकार चारों ओर से घना था । बुड्ढा कन्या और पुत्र को लेकर वहीं जा छिपा । घोड़ों की टाप अब पास ही सुनाई देने लगी। उस अँधेरे में सैकड़ों अश्वारोही पाटलिपुत्र की ओर घोड़े फेकते जाते दिखाई पड़े। रह रह- कर बिजली का प्रकाश पड़ने से उनकी मूचियाँ और भी भीषण दिखाई दे जाती थीं। बुड्ढा अपने पुत्र और कन्या को गोद में दबाए पेड़ से लगकर सिमटा जाता था । आधे दंड के भीतर जितने अश्वारोही थे सब श्रेणीबद्ध होकर उस आम के पेड़ के सामने से होकर निकले। अश्वा. रोहियों के बहुत दूर निकल जाने पर भी वृद्ध को सड़क पर आने का साहस नहीं होता था। धीरे धीरे वर्षा भी होने लगी। सारा आकाश मेघों से ढककर काला हो गया। वृद्ध पुत्र और कन्या को पेड़ के धड़ के खोखले में खिसका कर आप बैठ कर भीगता था । एक पहर रात
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